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________________ ४५८ बृहत्कल्पभाष्यम् करने की श्रद्धा पैदा होती है तथा ग्लान और अनशनी का आदि क्रियाओं के समय अभ्युत्थान करना हम निरर्थक वीर्याचार त्यक्त नहीं होता। मानते हैं। ४४४३.चंकमणे पासवणे, वीयारे साहु संजई सन्नी। ४४४८.कामं तु एअमाणो, आरंभाईसु वट्टई जीवो। सन्निणि वाइ अमच्चे, संघे वा रायसहिए वा॥ सो उ अणट्ठा जेट्ठो, अवि बाहूणं पि उक्खेवो।। ४४४४.पणगं च भिन्नमासो, मासो लहुगो य होइ गुरुगो य। यह अनुमत है कि स्पन्दमान जीव आरंभ आदि में अर्थात् चत्तारि छ च्च लहु गुरु, छेदो मूलं तह दुगं च॥ कर्मबंध के कारणों में प्रवृत्त होता है। जीव का स्पंदन आचार्य को चंक्रमण करते हुए देखकर अभ्युत्थान न निष्कारण नहीं माना गया है। बाहु का उत्क्षेप भी निरर्थक करने पर पांच रात-दिन का, प्रस्रवण भूमी से आने पर नहीं होता, फिर चंक्रमण आदि की बात ही क्या? भिन्नमास, संज्ञाभूमी से आने पर मासलघु, दूसरे साधुओं के ४४४९.मणो य वाया काओ अ, तिविहो जोगसंगहो। साथ आने पर मासगुरु, साध्वियों के साथ आने पर चतुर्लघु, ते अजुत्तस्स दोसाय, जुत्तस्स उ गुणावहा॥ श्रावकों के साथ आने पर चतुर्गुरु, असंज्ञियों के साथ आने योगसंग्रह तीन प्रकार का है-मनोयोग, वाग्योग और पर षड्लघु, संजिनी स्त्रियों के साथ आने पर षड्गुरु, वादी काययोग। जो व्यक्ति अनुपयुक्त होता है उसके ये तीनों योग के आने पर छेद, अमात्य के साथ आने पर मूल, संघ के दोष के लिए होते हैं अर्थात् कर्मबंध के लिए होता है और जो साथ आने पर अनवस्थाप्य, राजा के साथ आने पर उपयुक्त होता है उसके ये तीनों योग गुणकारी होते हैं, अर्थात् पारांचिक। (ये सारे प्रायश्चित्त आचार्य के आने पर निर्जरा के कारण बनते हैं। अभ्युत्थान न करने पर आते हैं।) ४४५०.जह गुत्तस्सिरियाई, न होति दोसा तहेव समियस्स। ४४४५.पूएंति पूइयं इत्थियाउ पाएण ताओ लहुसत्ता। गुत्तीट्ठिय प्पमायं, रुंभइ समिई सचेट्ठस्स॥ एएण कारणेणं, पुरिसेसुं इत्थिया पच्छा॥ जो मनो-वाक्-काय से गुप्त होता है उसके ईर्यादि के दोष स्त्रियां प्रायः पूजित की पूजा करती हैं। वे तुच्छ नहीं लगते। उसी प्रकार जो समित होता है, समितियों में स्वभाववाली होती हैं। इन दो कारणों से पहले पुरुषों (साधु- उपयुक्त होता है उसके भी ईर्यादि के दोष नहीं लगते। जो श्रावकों) को अधिकृत कर लघु प्रायश्चित्त कह कर पश्चात् । मुनि गुप्तियों में स्थित है, वह अगुप्तिजनक प्रमाद का निरोध स्त्रियों (साध्वियों, श्राविकाओं) को अधिकृत कर गुरु कर लेता है। जो मुनि समितियों में स्थित है-वह सचेष्ट में प्रायश्चित्त कहा गया है। होने वाले प्रमाद और उससे होने वाले कर्मबंध का निरोध ४४४६.पाएणिद्धा एंति महाणेण समं तू, करता है। फातिं दोसो गच्छइ एएसु तणू वि। ४४५१.समितो नियमा गुत्तो, गुत्तो समियत्तणम्मि भइअव्वो। गझं वक्कं होज्ज कहं वा परिभूतो, कुसलवइमुदीरंतो, जं वइसमितो वि गुत्तो वि॥ वेडुज्जं वा कुच्छियवेसम्मि मणूसे॥ जो मुनि समित है, वह नियमतः गुप्त है। जो गुप्त है वह (राजा के साथ गुरु के आने पर अभ्युत्थान न करने पर समितत्व में विकल्पनीय है। प्रश्न है कि जो समित है वह पारांचिक प्रायश्चित्त क्यों?) नियमतः गुप्त कैसे? जो कुशल अर्थात् निरवद्य वचन की राजा ऐश्वर्यशाली होते हैं। वे प्रायः सामन्त, मंत्री आदि उदीरणा करता है वह वाक्समित और गुप्त भी है। महाजनों के साथ आते हैं। अतः इनके कारण लघु दोष भी ४४५२.जो पुण काय-वतीओ, निरुज्झ कुसलं मणं उदीरेइ। बड़ा हो जाता है, विस्तार पा जाता है। साधुओं द्वारा चिट्ठइ एकग्गमणो, सो खलु गुत्तो न समितो उ॥ अभ्युत्थान न करने पर आचार्य का पराभव माना जाता है। कोई शरीर और वाणी का निरोध कर कुशल मन की जो परिभूत हो उसका वचन ग्राह्य कैसे हो सकता है? जैसे उदीरणा करता है और एकाग्रमन होकर बैठता है। वह गुप्त कुत्सित वेश वाले मनुष्य के पास स्थित वैडूर्यमणि उपादेय कहलाता है, समित नहीं। नहीं होता। ४४५३.वाइगसमिई बिइया, तइया पुण माणसा भवे समिई। ४४४७.अवस्सकिरियाजोगे, वढ्तो साहु पुज्जया। सेसा उ काइयाओ, मणो उ सव्वासु अविरुद्धो॥ परिफग्गुं तु पासामो, चंकम्मते वि उट्ठणं॥ वाचिकसमिति (भाषासमिति) दूसरी वाग्गुप्ति है। तीसरी आचार्य यदि आवश्यक क्रियायोग में वर्तमान होकर समिति है एषणा समिति। वह मानसिक उपयोग से निष्पन्न आते हैं तो उनकी पूज्यता श्रेयस्करी है। किन्तु चंक्रमण होती है। वह मनोगुप्ति है। शेष सारी समितियां कायगुप्ति के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
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