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तीसरा उद्देशक = अंतर्गत आती हैं। मानसिक उपयोग सभी समितियों में विद्यमान रहता है। ४४५४.वयसमितो च्चिय जायइ,
एसणउवओगे पुण,
सोयाई माणसा न वई॥ जब मुनि कल्पनीय आहार आदि की याचना करता है तो वह वागसमित ही है, मनोगुप्त नहीं है। जब वह श्रोत्र आदि के द्वारा एषणा में उपयोग करता है तब उसके मनोगुप्ति होती है। उस समय वागसमिति नहीं होती। ४४५५.जा वि य ठियस्स चेट्ठा, हत्थादीणं तु भंगियाईसु॥
सा वि य इरियासमिती, न केवलं चंकमंतस्स॥ केवल चंक्रमण करने वाले के ही ईर्यासमिति नहीं होती। किन्तु जो बैठा है, उसकी भंगबहुलश्रुत में जो हाथ आदि की चेष्टाएं होती हैं वह भी ईर्यासमिति के अंतर्गत आती हैं। ४४५६.वायाई सट्ठाणं, वयंति कुविया उ सन्निरोहेणं।
लाघवमग्गिपडुत्तं, परिस्समजतो य चंकमतो॥ एक स्थान पर बैठे रहने से संन्निरुद्ध वायु आदि धातुएं कुपित होकर स्वस्थान से चलित हो जाती हैं। चंक्रमण से वे अपने स्थान पर आ जाती हैं। शरीर में लाघवपन आता है, जठराग्नि प्रदीप्त होती है तथा व्याख्यान आदि से उत्पन्न परिश्रम पर विजय प्राप्त होती है। ४४५७.चंकमणे पुण भइयं, मा पलिमंथो गुरूविदिन्नम्मि।
पणिवायवंदणं पुण, काऊण सई जहाजोगं॥ गुरु के चंक्रमण करते समय शिष्य को अभ्युत्थान करना चाहिए या नहीं, यह विकल्पनीय है। सूत्रार्थ का परिमंथ न हो इसलिए आचार्य यदि अभ्युत्थान न करने की अनुज्ञा दे दे तो अभ्युत्थान करने की आवश्यकता नहीं है। परंतु एक बार अभ्युत्थान करके, गुरु को प्रणिपात-वंदना करने के पश्चात् यथायोग्य अपना कार्य करे। ४४५८.अइमुद्धमिदं वुच्चइ, जं चंकमणे वि होइ उट्ठाणं।
__ एवमकारिज्जंता, भद्दगभोई व मा कुज्जा॥
यह अत्यंत अप्रबुद्धजनोचित वचन है कि आचार्य चंक्रमण करते हों तो भी शिष्य को अभ्युत्थान करना चाहिए। आचार्य कहते हैं-वत्स! यदि इस प्रकार न कराया । १. देखें कथा परिशिष्ट, नं. ९६।। २. आचार्य, उपाध्याय प्रवर्तक, स्थविर और गच्छावछेदी-ये पांच 'पंजर'
कहलाते हैं। इनकी परतंत्रता, इनकी सारणा, प्रेरणा पंजर कहलाती है। जो इनकी प्रेरणा नहीं मानता वह पंजरभग्न होता है।
(वृ. पृ. १२०४)
जाए तो 'भद्रक-भोजिक' की भांति शेष विनय-प्रसंगों में भी शिष्य अविनय न करें इसीलिए चंक्रमण से भी अभ्युत्थान कराया जाता है। ४४५९.वसभाण होति लहुगा, असारणे सारणे अपच्छित्ता।
ते वि य पुरिसा दुविहा, पंजरभग्गा अभिमुहा य॥ वृषभ मुनि यदि अभ्युत्थान न करने वाले शिष्यों की सारणा नहीं करते हैं तो उनको चतुर्लघु का प्रायश्चित्त आता है और यदि सारणा करते हैं तो उन्हें कोई प्रायश्चित्त नहीं आता। गच्छ में प्रतीच्छक दो प्रकार के पुरुष होते हैंपंजरभग्न और संयमाभिमुख। ४४६०.भग्गऽम्ह कडी अब्भुट्ठणेण देइ य अणुट्ठणे सोही।
अनिरोहसुहो वासो, होहिइ णे इत्थ अच्छामो॥ गच्छ में रहने वाले प्रतीच्छक शिष्य सोचते हैं जहां हम थे वहां आचार्य के चंक्रमण करते समय बार-बार अभ्युत्थान करने के कारण हमारी कमर टूट गई। अभ्युत्थान न करने पर प्रायश्चित्त दिया जाता है। इस गच्छ में अनियंत्रण का सुख है, यहां सुखदायी वास है, इसलिए हम यहां निवास करें-यह सोचकर वे वहीं रह जाते हैं, अपने गच्छ में नहीं लौटते। ४४६१.जे पुण उज्जयचरणा, पंजरभग्गो न रोयए ते उ।
अन्नत्थ वि सइरत्तं, न लब्भई एति तत्थेव॥ उद्यतचरण वाले मुनि पंजरभग्न मुनि को रुचिकर नहीं लगते। पंजरभग्न सोचता है-अन्यत्र किसी भी गच्छ में स्वतंत्रता नहीं है। यह सोचकर वह अपने गच्छ में लौट जाता है। ४४६२.चरणोदासीणे पुण, जो विप्पजहाय आगतो समणो।
सो तेसु पविसमाणो, सद्धं वड्डेइ उभओ वि।। जो श्रमण चारित्र के प्रति उदासीन पार्श्वस्थ आदि को छोड़कर आया है, वह गच्छान्तरीय साधुओं में प्रवेश करता हुआ दोनों (जिस गच्छ से आया है वहां के साधुओं को तथा जिस गच्छ में प्रवेश कर रहा है वहां के साधुओं) में श्रद्धा को बढ़ाता है। ४४६३.इत्थ वि मेराहाणी, एते वि हु सार-वारणामुक्का।
अन्ने वयइ अभिमुहो, तप्पच्चयनिज्जराहाणी।। जो श्रमण आया है वह उस गच्छ में भी मर्यादा की हानि देखता है और सोचता है यहां के मुनि भी स्मारणा-वारणा ३. जिस गच्छ में वह प्रवेश करता है, वहां के साधु सोचते हैं-यह हमें
सुंदर समझ कर आया है। वे सुन्दरतर क्रिया करने में संलग्न हो जाते हैं। जिस गच्छ से आया है, वहां के मुनि सोचते हैं-यह हमें सुखशील मानकर गया है, इसलिए हमें उद्यत होना चाहिए।
(वृ. पृ. १२०५)
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