SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 291
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पांचवां उद्देशक पुरुषमिश्रित स्त्रीसार्थ के साथ, उसके अभाव में केवल पुरुष सार्थ के साथ या पूजित लिंग धारण कर जाए। यह मार्गगत यतना है। ग्राम को प्राप्तकर साध्वी साधु-भावित कुल में ठहरे और वहीं भिक्षा करे। अचेल आर्या को देखकर प्रव्रज्या लेने वाली कुलस्त्री का मन पलट जाता है। कोई दूसरा व्यक्ति उसको प्रव्रज्या से निवारण कर देता है। कोई उदीर्ण मोहवाला व्यक्ति उस अप्रावृत आर्या को देखकर अपने साथ आने के लिए प्रेरित करता है। वह भी उसी में प्रतिबंध कर उसके साथ गृहस्थरूप में चली जाती है। 'डिंडिमदोष' अर्थात् गर्भोत्पत्ति आदि होती है। ये सारे नग्न रहने के दोष है। अतः आर्या को अचेल नहीं होना चाहिए। नो कप्पइ निग्गंथीए अचेलियाए होत्तए॥ (सूत्र १६) ५९३५.वुत्तो अचेलधम्मो, इति काइ अचेलगत्तणं ववसे। __नो कप्पइ निग्गंथीए अपाइयाए जिणकप्पो वऽज्जाणं, निवारिओ होइ एवं तु॥ होत्तए॥ भगवान् ने अचेलक धर्म की प्ररूपणा की है, यह सोचकर (सूत्र १७) कोई आर्यिका अचेलकत्व करना चाहे, उसके निषेध के लिए प्रस्तुत सूत्र है। अचेलकत्व के प्रतिषेध से आर्यिकाओं के ५९४०.गोणे साणे व्व वते, ओभावण खिंसणा कुलघरे य। लिए प्रस्तुत सूत्र से जिनकल्प भी निवारित हो जाता है। णीसट्ठ खइयलज्जा, सुण्हाए होति दिढतो॥ ५९३६.अजियम्मि साहसम्मी, इत्थी ण चए अचेलिया होउं। प्रस्तुत सूत्र का कथन है कि साध्वियों को पात्र रहित साहसमन्नं पि करे, तेणेव अइप्पसंगण॥ होना नहीं कल्पता। ५९३७.कुलडा वि ताव णेच्छति, पात्र के बिना उनको यत्र-तत्र भोजन करना पड़ता है। यह अचेलयं किमु सई कुले जाया। देखकर लोग कहते हैं इन्होंने गोव्रत और श्वाव्रत ले रखा है। धिक्कारथुक्कियाणं, जैसे गाय और कुत्ता यत्र-तत्र जो मिलता है उसे खा लेते हैं, तित्थुच्छेओ दुलभ वित्ती॥ वैसे ही ये साध्वियां हैं। इस प्रकार उनकी अपभ्राजना होती जब तक साध्वी तरुणों द्वारा कृत उपसर्गों के भय से है। लोग खिंसना करते हैं। उन साध्वियों के कुलघर में नहीं उबरती तब तक वह अचेलिका नहीं हो सकती। यदि जाकर निंदा करते हैं। लोगों के समक्ष खाने से वे कहते हैं ये होती है तो फिर उसी अचेलता के अतिप्रसंग से वह दूसरा बहुभक्षिका हैं। इन्होंने लज्जा को परित्यक्त कर दिया है। यहां अनाचार सेवन का भी साहस कर सकती है। कुलटा स्त्री भी। स्नुषा का दृष्टांत है। वह दो प्रकार का है-प्रशस्त और अचेलकता नहीं चाहती तो फिर कुल में उत्पन्न साध्वी अप्रशस्त। उसकी इच्छा कैसे करेगी? अचेलता प्रतिपन्न आर्यिकाओं ५९४१.उच्चासणम्मि सुण्हा, को, जो धिक्कारथुक्ति-लोकापवाद से जुगुप्सित हैं, उनसे ण णिसीयइ ण वि य भासए उच्चं। तीर्थ का उच्छेद होता है और वृत्ति-भक्तपान की प्राप्ति दुर्लभ णेव पगासे भुंजइ, हो जाती है। गृहइ वि य णाम अप्पाणं॥ ५९३८.गुरुगा अचेलिगाणं, समलं च दुगंछियं गरहियं च। प्रशस्त दृष्टांत-जैसे वधू ऊंचे आसन पर नहीं बैठती, होइ परपत्थणिज्जा, बिइयं अद्धाणमाईसु॥ जोर से नहीं बोलती, प्रकाश में भोजन नहीं करती और जो आर्यिका अचेलिका होती है, उसके चतुर्गुरु और अपना नाम नहीं बताती। वैसे ही साध्वियों को होना चाहिए। आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं। चेलरहित साध्वी को मैलसहित ५९४२.अहवा महापदाणिं, सुण्हा ससुरो य इक्कमेक्कस्स। देखकर लोग जुगुप्सा और गर्दा करते हैं। अचेलका स्त्री दलमाणाणि विणासं, लज्जाणासेण पावंती॥ दूसरों के लिए प्रार्थनीय होती है। यहां द्वितीयपद मार्ग में अप्रशस्त दृष्टांत-अथवा स्नुषा और श्वसुर दोनों को बिछुड़ जाने वाली आर्या का मानना चाहिए। परस्पर महापद अर्थात् विकृष्टतर पैरों से प्रहार करते हुए ५९३९.पुणरावत्ति निवारण, उदिण्णमोहो व दट्ट पेल्लेज्जा। लज्जानाश से विनाश को प्राप्त होते हैं वैसे ही निर्लज्ज पडिबंधो गमणाई, डिंडियदोसा य निगिणाए॥ साध्वी भी विनष्ट हो जाती है। जैसे-एक ब्राह्मण की भार्या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy