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तीसरा उद्देशक
४६५ राख लगा दी और उस घड़े को कपाटयुक्त अनाबाध प्रदेश में अतः दोषों का संचय होता जाता है और वह चारित्र से भ्रष्ट रख कर चारों और कांटों वाली बाड़ लगा दी। वह उस घट हो जाता है। की तीनों संध्याओं में देखरेख करने लगा।
४५२२.अंतो भयणा बाहिं, तु निग्गते तत्थ मरुगदिद्वंतो। दूसरे व्यक्ति ने अपने घट को एक स्थान पर रखा। शर्करा संकर सरिसव सगडे, मंडव वत्थेण दिद्वंतो॥ की सुगंध से कीटिकाएं आने लगीं। मुद्रा को कोई हानि न (पूर्व गाथाओं से संबंध स्थापित करने के लिए प्रस्तुत पहुंचाती हुई घट को नीचे से चलनी कर डाला। समय के गाथा का पहले उत्तरार्ध की व्याख्या की जा रही है। इस बीतते बीतते घट नीचे से जर्जरित हो गया। सारी शर्करा विभाग में ये दृष्टांत हैं-) कीटिकाओं ने खाली। एक दिन राजा ने दोनों पुरुषों से घट (१) संकर-संकर का अर्थ है-तृण आदि कचरे का ढेर। मंगाए। दोनों ने अपने-अपने घट दिखाए। जिसने घट-रक्षण एक बगीचा था। उसको सारणी से पानी पिलाया जाता था। में प्रमाद किया, उसे राजा ने दंडित किया। जिसने प्रमाद सारणी में तिनके गिरे। किसी ने उन्हें नहीं निकाला। तिनके नहीं किया उसको राजा ने सम्मानित किया।
गिरते गए। पानी का बहाव रुक गया। पानी के अभाव में इसका अर्थोपनय यह है राजा स्थानीय हैं गुरु, पुरुष- बगीचा सूख गया। इसी प्रकार उत्तरगुणों की बार-बार स्थानीय हैं साधु, शर्करास्थानीय है-चारित्र, घटस्थानीय है प्रतिसेवना से दोषों का संचय होता है और प्रवहमान आत्मा, मुद्रास्थानीय है रजोहरण, कीटिकास्थानीय हैं, संयमजल अवरुद्ध हो जाता है, व्यक्ति चारित्र से च्युत हो अपराध, दंडस्थानीय है दुर्गतिप्राप्ति, सम्मानस्थानीय है- जाता है। सुगतिप्राप्ति।
(२) सर्षपशकट और मंडप-शकट और मंडप पर सरसों ४५१९.निवसरिसो आयरितो, लिंगं मुद्दा उ सक्करा चरणं। के दाने डाले, वे उसमें समा गए। प्रतिदिन डालते गए, वे
पुरिसा य होंति साहू, चरित्तदोसा मुयिंगाओ॥ समाते गए। एक दिन ऐसा आया कि सरसों के भार ने शकट नृप के सदृश आचार्य, मुद्रा के समान है लिंग, शर्करा के और मंडप को तोड़ डाला। इसी प्रकार एक-एक दोष चारित्र समान है चारित्र, पुरुष के सदृश हैं साधु तथा चारित्रदोष के पर अपना भार डालते रहें तो एक दिन चारित्र टूट जाता है। समान है मुयिंग-कीटिका।
(३) वस्त्र का दृष्टांत-नया वस्त्र। एक तैल बिन्दु उस यह भाष्यकार का उपनय है।
पर पड़ा। उसका शोधन नहीं किया गया। उस पर धूल लग ४५२०.एसणदोसे सीयइ, अणाणुतावी ण चेव वियडेइ। गई। दूसरी-तीसरी बार भी उस पर तैल पड़ा। शोधन नहीं
___णेव य करेइ सोधिं, ण त विरमति कालतो भस्से॥ हुआ। वह वस्त्र अत्यंत मलिन हो गया। इसी प्रकार चारित्र
कोई मुनि एषणा के दोषों से दुष्ट भक्तपान ग्रहण करता है। भी अपराधपदों से मलिन हो जाता है यदि उनका शोधन न वह इस प्रकार करके भी अपने कृत्य पर न अनुताप करता है किया जाए।
और न गुरु के समक्ष अपने दोष को प्रकट करता है, न इसी श्लोक के पूर्वार्ध की व्याख्याप्रायश्चित्त लेता है और न अशुद्ध आहार ग्रहण करने से जो मुनि संयमश्रेणी के मध्य में है उसके प्रति कृतिकर्म विरत होता है। वह कुछ काल के बाद संयम से भ्रष्ट हो करने की भजना है और जो संयमश्रेणी से बाहर निर्गत हो जाता है।
गया है उसका कृतिकर्म नहीं करना चाहिए। यहां मरुक४५२१.मूलगुण उत्तरगुणे, मूलगुणेहिं तु पागडो होइ। ब्राह्मण का दृष्टांत है।
उत्तरगुणपडिसेवी, संचयऽवोच्छेदतो भस्से॥ ४५२३. पक्कणकुले वसंतो, सउणीपारो वि गरहिओ होइ। दोषों की प्रतिसेवना करने वाले दो प्रकार के होते हैं
इय गरहिया सुविहिया, मज्झि वसंता कुसीलाणं। मूलगुण प्रतिसेवक और उत्तरगुण प्रतिसेवक। मूलगुण की पक्कणकुल-मातंगगृह में निवास करता हुआ शकुनीप्रतिसेवना करने वाला स्पष्टतः प्रतीत हो जाता है। वह पारगः (ब्राह्मण) भी गर्हित होता है, इसी प्रकार सुविहित चारित्र से शीघ्र ही भ्रष्ट हो जाता है। उत्तरगुण की प्रतिसेवना साधु भी कुशील साधुओं के मध्य रहता हुआ गर्हित करने वाला दोषसेवन के परिणाम का व्यवच्छेद नहीं करता, होता है। १. शकुनी शब्द चौदह विद्या-स्थानों का द्योतक है
-अंग छह हैं-शिक्षा, व्याकरण, कल्प, छंद, निरुक्ति और अंगानि वेदाश्चत्वारो, मीमांसा न्यायविस्तरः।
ज्योतिष। शकुनीशब्देन चतुर्दश विद्यास्थानानि गृह्यन्ते.......। पुराणं धर्मशास्त्रं च, स्थानान्यहुश्चतुर्दश॥
(वृ. पृ. १२२२)
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