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बनाकर दूसरा द्वार कर लेना चाहिए। मध्य में कुड्य की स्थिति न हो तो कटक या चिलिमिलिका का प्रयोग करे। उन दोनों के पार्श्व में एक और स्थविर मुनि और दूसरी ओर क्षुल्लिका साध्वियां होती हैं।
४८१५. दारदुयस्स तु असती, मज्झे दारस्स कडग पुत्ती वा । णिक्खम-पवेसवेला, सस६ पिंडेण ससह पिंडेण सज्झातो ॥ दो द्वार न हों तो मध्य में कटक या चिलिमिलिका बांधकर दो विभाग कर ले। यदि वसति संकीर्ण हो और यह विभाग नहीं किया जा सकता तो एक साथ प्रवेश और निर्गमन का वर्जन करते हैं। निर्गमन करते समय एक साथ स्वाध्याय करते हैं।
४८१६. अंतम्मि व मज्झम्मि व,
तरुणी तरुणा य सव्यबाहिरतो । मज्झे मज्झिम धेरी,
खुड्डी खुड्डा य थेरा य ॥ जो तरुण साध्वियां हैं वे अन्त में या मध्य में होती हैं। तरुण साधुओं को सर्वतः बाह्य रखना चाहिए। मध्य में मध्यम, स्थविर और क्षुल्लिका साध्वियां होती हैं। फिर क्षुल्लक और स्थविर साधु होते हैं। ४८१७. पत्तेय समण विक्खिय
पुरिसा इत्थी य सव्वे एकत्था । पच्छण्ण कडग चिलिमिणि,
मज्झे वसभा य मत्तेणं ॥ यदि प्रत्येक अर्थात् स्त्रीवर्जित-साध्वियों से वर्जित श्रमण तथा शाक्य आदि हों और वे सब एकत्र एक वसति में रहते हों और प्रव्रजित स्त्रियां भी एकत्र रहती हों तो साधुसाध्वियां प्रच्छन्न प्रदेश में रहे। प्रच्छन्न प्रदेश के अभाव में कटक या चिलिमिलिका बीच में बांधे और कायिकी के लिए मात्रक का प्रयोग करे।
४८१८. पच्छन्न असति निण्डम,
बोडिय भिच्छुय असोय सोया य
परदव बहुगादी,
गरहा य सअंतरं एक्को ॥ प्रच्छन्न प्रदेश के अभाव में निह्नव के वहां, उसके अभाव में बोटिकों के वहां या भिक्षुक के वहां या अशौचवादी या शौचवादी के यहां रहे। वहां रहते हुए शौच आदि कार्य में प्रचुर पानी का उपयोग करे, कमढक में भोजन करे। शौचवादी गां न करे वैसा आचरण करे सान्तर बैठकर भोजन करे। एक क्षुल्लक मुनि कमढकों का कल्प करता है।
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बृहत्कल्पभाष्यम्
४८१९. पासंडीपुरिसाणं, पासंडित्थीण वा वि पत्तेगे। पासंडित्थि पुमाणं व एक्कतो होतिमा जयणा ॥ पाडी पुरुष तथा पाषंडी स्त्रियां अलग-अलग स्थित हैं, तथा दोनों एक साथ स्थित हों तो यह यतना है। ४८२०. जे जह असोयवादी साधम्मी वा वि जत्थ तहिं वासो ।
णिहुया य जुद्धकाले, ण वुग्गहो णेव सज्झाओ ॥ जो अशौचवादी होते हैं, जो साधर्मिक होते हैं, उनके साथ साधु रहें । युद्ध के समय दोनों पक्ष निर्व्यापार होते हैं। स्वपक्ष के साथ न विग्रह करे और न स्वाध्याय करे ।
४८२१. तं चेव पुव्वभणितं, पत्तेयं दिस्समाणे कुरुया य। थंडिल्ल सुक्ख हरिए, पवायपासे पदेसेसु ॥ स्थंडिल की यतना- पहले कथित ( गाथा ४१९ ) की भांति है। प्रथम स्थंडिल की प्राप्ति न होने पर शेष स्थंडिलों में जाते समय प्रत्येक मुनि मात्रक ग्रहण करे और सागारिक के देखते हुए कुरुकुच (शौचक्रिया आदि) करे। शुष्क तृण हो वहां व्युत्सर्जन करे। उसके अभाव में हरित पर भी व्युत्सर्ग किया जा सकता है। प्रपाप, गर्त्ता आदि के पार्श्व में या यत्र-तत्र प्रदेश में व्युत्सर्ग करे ।
४८२२. पढमासह अमणुण्णेतराण मिहियाण वा वि आलोगं ।
पत्तेयमत्त कुरुकुय, दवं च परं हित्थेसुं ॥ ४८२३. तेण परं पुरिसाणं, असोयवादीण वच्च आवातं ।
इत्थी - नपुंसकेसु वि, परम्मुहो कुरुकुया सेव ॥ प्रथम लक्षणवाले स्थंडिल के अभाव में अथवा वहां व्याघात होने पर मुनि दूसरे प्रकार के स्थंडिल अर्थात् अनापात-संलोक में जाए। पुरुषों का संलोक हो, वहां जाए और आचमन आदि यतनापूर्वक करे। प्रत्येक मुनि पात्र लेकर जाए और डगलकों से प्रमार्जन न करे और आचमन के पश्चात् कुरुकुच (मिट्टी से हाथ धोना) करे । 'त्रिविधे प्रत्येकं द्विविधो भेदः - इसका तात्पर्य है कि परपक्ष तीन प्रकार का है पुरुष स्त्री, नपुंसक प्रत्येक के दो-दो प्रकार हैं- शौचवादी अशीचवादी अथवा श्रावक, अश्रावक अथवा तीन प्रकार स्थविर, मध्यम, तरुण अथवा प्राकृत, कौटुम्बिक, दंडिक। ये पुरुषों के भेद हैं। इसी प्रकार स्त्री, नपुंसक के भी भेद ज्ञातव्य हैं।
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सामान्य पुरुषालोक वाले स्थंडिल के अभाव में अशौचवादी पुरुषालोक वाले स्थंडिल में जाए। इसके भी अभाव में स्त्री नपुंसकालोक वाले स्थंडिल में जाए। वहां वह परामुख बैठे और कुरुकुच आदि की पूर्ववत् यतना करे।
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