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________________ = ६७९ छठा उद्देशक करने वाला अर्हत् शासन की आशातना करता है और वह दीर्घसंसारी होता है। ६४८८.छव्विहकप्पस्स ठितिं, नाउं जो सद्दहे करणजुत्तो। पवयणणिही सुरक्खितो, इह-परभववित्थरप्फलदो॥ जो मुनि छह प्रकार के कल्प की स्थिति को जानकर उस पर श्रद्धा करता है तथा करणयुक्त यथानुष्ठानयुक्त होता है, वह प्रवचननिधि और आत्मसंरक्षित होता है। उसको इहभव और परभव में विस्तृत फल प्राप्त होते हैं। ६४८९.भिण्णरहस्से व णरे, णिस्साकरए व मुक्कजोगी य। छविहगतिगुविलम्मिं, सो संसारे भमति दीहे॥ जो मुनि भिन्नरहस्य अर्थात् अयोग्य मुनियों को अपवादपदों का रहस्य बताता है, ऐसे नर को तथा जो निश्राकर होता है अर्थात् अपवादपद की निश्रा में ही चलता है, जो मुक्तयोगी ज्ञान, दर्शन आदि योगों से रहित है-ऐसे व्यक्ति को रहस्य नहीं बताने चाहिए, जो बताता है वह षट्काय से गहन दीर्घ संसार में परिभ्रमण करता है। ६४९०.अरहस्सधारए पारए य असढकरणे तुलासमे समिते। कप्पाणुपालणा दीवणा य, आराहण छिन्नसंसारी।। नायम्मि गिण्हियव्वे, अगिण्हियव्वम्मि चेव अत्थम्मि। जइयव्वमेव इइ जो, उवएसो सा नओ नाम॥ सव्वेसि पि नयाणं, बहुविहवत्तव्वयं निसामित्ता। तं सव्वनयविसुद्धं, जं चरण-गुणट्ठितो साहू। अरहस्य धारक-अतीव रहस्यमय शास्त्रों को धारण करने वाला, सूत्रों का पारगामी, अशठकरण-माया-पद से विप्रमुक्त, तुलासदृश, समित-पांच समितियों से समायुक्त, कल्प की अनुपालना करने वाला, दीपन-स्वसमय की दीपना करने वाला, जो आलस्य को छोड़कर भगवद् कथन की दीपना करने वाला होता है, वही ज्ञान, दर्शन, चारित्र की आराधना करने वाला तथा संसार भ्रमण को छिन्न करने वाला होता है। वह मोक्ष को प्राप्त हो जाता है। छठा उद्देशक समाप्त १. नास्त्यपरं रहस्यान्तरं यस्मात् तद् अरहस्यम्। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
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