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=बृहत्कल्पभाष्यम्
(अजितस्वामी) को कल्पता है। यदि मध्यम संघ को समुद्दिष्ट करता है तो दोनों के लिए अकल्पिक होता है। ५३४७.एमेव समणवग्गे, समणीवग्गे य पुव्वमुद्दिद्वे।
मज्झिमगाणं कप्पे, तेसि कडं दोण्ह वि ण कप्पे॥ इसी प्रकार पूर्व के श्रमण श्रमणीवर्ग को उद्दिष्ट कर किया है वह मध्यम श्रमण श्रमणी वर्ग को कल्पता है। यदि मध्यम को उद्दिष्ट कर किया है तो दोनों को-पूर्व-मध्यम को नहीं कल्पता। ५३४८.पुरिमाणं एक्कस्स वि, कयं तु सव्वेसि पुरिम-चरिमाणं।
वि कप्पे ठवणामेत्तगं तु गहणं तहिं नत्थि॥ पूर्व के एक के लिए भी उद्दिष्ट दोनों को नहीं कल्पता। इसी प्रकार पश्चिम के भी एक के लिए उद्दिष्ट दोनों को नहीं कल्पता। यह तो केवल स्थापना मात्र है-प्ररूपणामात्र है। पूर्व-पश्चिम साधुओं का एकत्र समवाय असंभव है। परस्पर ग्रहण घटित ही नहीं होता। ५३४९.एवमुवस्सय पुरिमे, उहिट्ठ ण तं तु पच्छिमा भुंजे।
मज्झिम-तव्वज्जाणं, कप्पे उद्दिट्ठसम पुव्वा॥ इसी प्रकार सामान्य रूप से उपाश्रयों को उद्दिष्ट कर आधाकर्म करता है तो सभी के लिए अकल्प्य होता है। अथवा कोई आद्य तीर्थंकर साधुओं के उपाश्रय को उद्दिष्ट कर करता है तो पश्चिमवर्ती साधुओं को वह नहीं कल्पता। वे उसका उपभोग नहीं करते। वह मध्यम उपाश्रय के जितने मुनियों को उद्दिष्ट कर करता है, उनका वर्जन कर शेष श्रमणों और श्रमणियों को वह कल्पता है। पूर्व अर्थात् ऋषभ के साधु उद्दिष्टसम होते हैं, जिस साधु को उद्दिष्ट कर किया है, उसके तुल्य होते हैं। एक को उद्दिष्ट कर किया हुआ सबके लिए अकल्पनीय होता है। ५३५०.सव्वे समणा समणी,
मज्झिमगा चेव पच्छिमा चेव। मज्झिमग समण-समणी,
पच्छिमगा समण-समणीतो॥ यदि सभी श्रमण और श्रमणियों को उद्दिष्ट कर किया है तो सबके लिए अकल्प्य है। यदि मध्यम श्रमण और श्रमणियों को उद्दिष्ट किया है तो मध्यम तथा पश्चिम सभी के लिए अकल्प है। यदि पश्चिम के लिए ही किया है तो उनके लिए अकल्प है, मध्यमों के लिए कल्प्य है। पश्चिम श्रमणों के लिए उद्दिष्ट पश्चिम साधु-साध्वियों को नहीं कल्पता। मध्यम के दोनों के लिए कल्प्य है। इसी प्रकार पश्चिम श्रमणियों के लिए उद्दिष्ट के लिए वक्तव्य है। १.कयोक-वेषपरिवर्तनकारी नटविशेषः। (वृ. पृ. १४२१)
५३५१.उवस्सग गणिय-विभाइय,
उज्जुग-जड्डा य वंक-जड्डा य। मज्झिमग उज्जु-पण्णा,
पेच्छा सण्णायगाऽऽगमणं ।। उपाश्रयों में साधुओं को गिनकर-पांच-दस आदि या विभाजित करता है-अमुक-अमुक का निर्धारण कर उद्दिष्ट करता है। मुनि तीन प्रकार के होते हैं-ऋजुजड़, वक्रजड़ और ऋजुप्राज्ञ। प्रथम तीर्थंकर के मुनि ऋजुजड़, अंतिम तीर्थंकर के साधु वक्रजड़ और मध्य तीर्थंकरों के मुनि ऋजुप्राज्ञ होते हैं। इन तीनों प्रकार के साधुओं के लिए सज्ञातककुल में आने पर उद्गमादि दोष करते हैं। यहां नटप्रेक्षण का दृष्टांत है। ५३५२.नडपेच्छं दट्टणं, अवस्स आलोयणा ण सा कप्पे।
कउयादी सो पेच्छति, ण ते वि पुरिमाण तो सव्वे॥ प्रथम तीर्थंकर के एक मुनि ने भिक्षा के लिए पर्यटन करते हुए नट का प्रेक्षण-खेल देखा और गुरु के पास आकर उसकी आलोचना की। आचार्य ने कहा-नटप्रेक्षण साधुओं को नहीं कल्पता। अब वह दूसरी बार 'कयोक'? आदि देखने लगा। पूछने पर उसने कहा-आपने तो नटप्रेक्षण की मनाही की थी, कयोका की नहीं। तब आचार्य ने कहा-कयोका आदि भी देखना नहीं कल्पता। तब वे मुनि सबका परिहार करते हैं। ५३५३.एमेव उग्गमादी, एक्केक्क निवारि एतरे गिण्हे।
सव्वे वि ण कप्पंति, त्ति वारितो जज्जियं वज्जे॥ इसी प्रकार पूर्व तीर्थंकर के साधु को एक-एक उद्गम आदि दोष युक्त भक्तपान ग्रहण न करने के लिए वर्जना की जाती है, तब वह निवारित दोष का ही वर्जन करता है, इतर दोषयुक्त का निवारण नहीं करता। जब उसे कहा जाता है कि उद्गम आदि सारे दोषयुक्त नहीं कल्पते तब वह सबका यावज्जीवन तक वर्जना करता है। ५३५४.सण्णायगा वि उज्जुत्तणेण कस्स कत तुज्झमेयं ति।
मम उद्दिट्ठ ण कप्पइ, कीतं अण्णस्स वा पगरे। प्रथम तीर्थंकर के साधुओं के संज्ञातक भी पूछने पर कि यह भक्तपान किसके लिए बना है तो वे ऋजुतापूर्वक कह देते हैं कि यह आपके लिए ही बनाया है। तब साधु कहता हैहमारे लिए बना हुआ ग्रहण करना हमें नहीं कल्पता। तब वह क्रीतकृत अथवा अन्य दोषयुक्त भक्तपान बनाकर देता है अथवा अन्य साधु को उद्दिष्ट कर बनाया हुआ आधाकर्म भक्तपान देता है।
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