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५८८८. तो कुज्जा उवओगं, पाणे दट्टूण तं परिहरेज्जा । कुज्जा ण वा वि पेहं, सुज्झइ अतिसंभमा सो तु ॥ यदि उपरोक्त कारणों से प्रत्युपेक्षा नहीं होती है तो उपयोग करना चाहिए । यदि उपयोग करने पर प्राणी दिखाई दें तो उस भक्त-पान का परिहार कर देना चाहिए। वह प्रेक्षा करे या न करे, अति-संभ्रम के कारण वह मुनि शुद्ध है। ५८८९.वीसुं घेप्पइ अतरंतगस्स बितिए दवं तु सोहेति । ते उ असुक्खगहणं, तं पि य उण्हेयरे पेहे ॥ ग्लान के लिए पृथक् पात्र लिया जाए। द्वितीय पात्र में द्रव का शोधन किया जाए। तीसरा पात्र न होने के कारण उसी पात्र में शुष्क भी ले ले। दोनों - द्रव और शुष्क एक ही पात्र में आ जायेंगे। वह भी उष्ण ले । इतरत् शीतल की प्रत्युपेक्षा करे। यदि वह असंसक्त हो तो ले, अन्यथा नहीं । ५८९०. अद्धाणे ओमे वा, तहेव वेलातिवातियं णातुं ।
दुल्लभदवे व मा सिं, धोवण-पियणा ण होहिंति ॥ अध्वा में, अवमौदर्य में, वेला का अतिक्रम जानकर तथा शुष्क को पृथक् ग्रहण न करे। द्रव प्राप्त होना दुर्लभ है इसलिए साधुओं को पात्र धोने या पीने के लिए अभाव न हो, इसलिए शुष्क और द्रव एक ही पात्र में ले । ५८९१. आउट्टिय संसत्ते,
देसे गेलण्णऽद्धाण कक्खडे अखिप्पं । इयराणि य अदाणे,
कारण गहिते य जतणाए । 'आकुट्टी से' अर्थात् जानते हुए भी संसक्त देश में जाते हैं और संसक्त पानक लेते हैं और ग्लानत्व, अध्वा, कर्कश - अवमौदर्य में उसका शीघ्र परित्याग नहीं करते। 'इतर' सागारिक के देखते परिष्ठापन करना आदि अध्वा में करते हैं। कारण में उस गृहीत संसक्त पानक का यतनापूर्वक विवेचन विधि ज्ञातव्य है ।
५८९२. आउट्टि गमण संसत्त गिण्हणं न य विविंचए खिप्पं । ओम गिलाणे वेला, विहम्मि सत्थो वइक्कमइ ॥ आकुट्टि - संसक्त देश में गमन, संसक्त ग्रहण और उसका क्षिप्र विचिणा न करना - यह मान्य है । क्योंकि अवमौदर्य में वेला बीत जाती है, ग्लान के लिए वेला का अतिक्रमण हो जाता है, मार्ग में सार्थ व्यतिक्रान्त हो जाता है, अतः संसक्त का क्षिप्र परित्याग नहीं करना चाहिए। ५८९३. असिवादी संसत्ते, संकप्पादी पदा तु जह सुज्झे ।
संसद सत्तु चाउल, संसत्तऽसती तहा गहणं ॥ अशिव आदि कारणों से संसक्त देश में संकल्प आदि पदों को करने वाला भी शुद्ध है। यदि वहां असंसक्त पानक
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बृहत्कल्पभाष्यम्
प्राप्त न हो तो संसक्त पानक, तंदुलोदक, संसक्त सक्तू को ग्रहण करे ।
५८९४. ओवग्गहियं चीरं, गालणहेउं घणं तु गेण्हंति । तह वि य असुज्झमाणे, असती अद्भाणजयणा उ । औपग्रहिक चीवर अर्थात् सघन चीवर संसक्त पानक को छानने के लिए ग्रहण किया जाता है। यदि उससे भी छानने पर शुद्ध नहीं होता है और न तंदुलधावन आदि प्राप्त होता है तो मार्ग में जाते हुए जो पानकयतना गाथा २९२२ में कही गई है, वह करणीय है।
५८९५.संसत्त गोरसस्सा, ण गालणं णेव होइ परिभोगो । कोडिदुग-लिंगमादी, तहिं जयणा णो य संसत्तं ॥ यदि संसक्त गोरस प्राप्त होता है तो न उसको छानना चाहिए और न उसका परिभोग करना चाहिए। किन्तु दो कोटियों-विशोधिकोटि से तथा अविशोधिकोटि से भक्तपान ग्रहण करने के लिए प्रयत्न करना चाहिए । अन्यलिंग करके भक्तपान का उत्पादन करे किन्तु संसक्त गोरस ग्रहण न
करे ।
५८९६. सागारिय सव्वत्तो, णत्थि य छाया विहम्मि दूरे वा । वेला सत्थो व चले, ण णिसीय पमज्जणे कुज्जा ॥ मार्ग में जाते हुए चारों ओर सागारिक हैं, छाया नहीं है, अथवा दूर मार्ग पर छाया है, वहां तक पहुंचने पर वेला अतिक्रान्त हो जाती है, सार्थ प्रस्थित हो जाता है, वहां न बैठे, न प्रमार्जन करे। ऐसी स्थिति में उष्ण भूभाग में भी परिष्ठापन कर दे।
पाणगविहि-पदं
निग्गंथस्स य गाहावइकुलं पिंडवायपडिया अणुप्पविट्ठस्स अंतोपडिग्गहंसि दए वा दगरए वा दगफुसिए वा परियावज्जेज्जा, से य उसिणे भोयणजाए भत्तव्वे सिया, से य सीए भोयणजाए तं नो अप्पणा भुंजेज्जा, नो अन्नेसि दावए, एगंते बहुफाए पसे पडिलेहित्ता पमज्जित्ता परिवेयव्वे सिया |
(सूत्र १२)
५८९७. आहारविही वृत्तो, अयमण्णो पाणगस्स आरंभो । कायचउक्काऽऽहारे, कायचउक्कं च पाणम्मि ॥
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