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चौथा उद्देशक
दीक्षार्थी को पूछने पर वह स्वयं कह देता है कि वह तीसरे वेद में है। अथवा मित्रों से पूछकर उसके निर्वेद को जाना जा सकता है। अथवा उपाय से पूछने पर या लक्षणों से जान लिया जाता है कि यह कौन है। इन सब कारणों से उसको पंडक जानकर उसका परिहार करना चाहिए। ५१४२.नज्जंतमणज्जंते, निव्वेयमसड्ढे पढमयो पुच्छे।
अन्नाओ पुण भन्नइ, पंडाइ न कप्पई अम्हं॥ प्रव्रज्या लेने वाला ज्ञात भी हो सकता है और अज्ञात भी। यदि ज्ञात हो तो उसको सबसे पहले निर्वेद का कारण पूछना चाहिए। जो अज्ञात हो उसको कहना चाहिए कि हम पंडक आदि को दीक्षा नहीं देते। ५१४३.नाओ मि त्ति पणासइ, निव्वेयं पुच्छिया व से मित्ता।
साहंति एस पंडो, सयं व पंडो त्ति निव्वेयं॥ ___ 'मैं इनसे जान लिया गया हूं' यह सोचकर वह वहां से भाग जाता है। मित्रों को उसके निर्वेद के विषय में पूछने पर वे कहते हैं-यह पंडक है। अथवा 'मैं पंडक हूं' यह सोचकर वह स्वयं निर्वेद को-घृणा को प्राप्त होता है। ५१४४.महिलासहावो सर-वन्नभेओ,
मेण्ढं महंतं मउता य वाया। ससद्दगं मुत्तमफेणगं च,
एयाणि छ प्पंडगलक्खणाणि॥ पंडक की पहचान के छह लक्षण हैं१. वह महिला स्वभाव वाला होता है। २-३. उसमें स्वरभेद और वर्णभेद होता है। ४. उसका शिश्न-जननेन्द्रिय लंबी होती है। ५. उसकी वाणी कोमल होती है।
६. उसका मूत्र सशब्द और फेन सहित होता है। ५१४५.गती भवे पच्चवलोइयं च,
मिदुत्तया सीयलगत्तया य। धुवं भवे दोक्खरनामधेज्जो,
सकारपच्चंतरिओ ढकारो॥ उसकी गति स्त्री की भांति मंद होती है। वह बार-बार मुड़ कर तथा दोनों ओर देखता हुआ चलता है। उसके शरीर की त्वचा मृदु होती है, अंगोपांग शीतलस्पर्श वाले होते हैं-- इस प्रकार के लक्षण वाला व्यक्ति निश्चित ही दो अक्षर के नामवाला अर्थात् 'पंढ' होता है। ५१४६.गइ भास वत्थ हत्थे, कडि पट्टि भुमा य केसऽलंकारे।
पच्छन्न मज्जणाणि य, पच्छन्नयरं च णीहारो॥ ५१४७.पुरिसेसु भीरु महिलासु संकरो पमयकम्मकरणो य।
तिविहम्मि वि वेदम्मि, तियभंगो होइ कायव्वो॥
उसकी गति स्त्री की तरह मंद होती है। वह स्त्री की भांति भाषा बोलता है, वस्त्र पहनता है, हाथों को कूर्पर के नीचे या कपोलों पर रखकर बोलता है, बार-बार कमर को हिलाता है, पीठ को वस्त्र से ढंक कर चलता है, बोलते समय दोनों भोहों को नचाता है, स्त्रियों की भांति केशों की रचना करता है, अलंकार पहनता है। गुप्त स्थान में स्नान
आदि करता है, प्रच्छन्नतर प्रदेश में उच्चार-प्रस्रवण का विसर्जन करता है। वह पुरुषों के मध्य भीरु, महिलाओं में मीलन स्वभाव वाला, प्रमदाओं-महिलाओं की सारी क्रियाएं करने वाला होता है। तीनों प्रकार के वेदों के प्रत्येक के तीनतीन भंग करने होते हैं जैसे पुरुष पुरुषवेद का वेदन करता है, पुरुष स्त्रीवेद का वेदन करता है, पुरुष नपुंसक वेद का वेदन करता है। इसी प्रकार स्त्री-नपुंसक वेदों के विषय में भी कर्त्तव्य है। ५१४८.उस्सग्गलक्खणं खलु, फुफग तह वणदवे णगरदाहे।
अववादतो उ भइओ, एक्केको दोसु ठाणेसु॥ तीनों वेदों का यह उत्सर्ग (सामान्य) लक्षण है-जैसे स्त्रीवेद फुम्फुकाग्नि समान होता है। पुरुषवेद वन की दवाग्नि के समान होता है और नपुंसकवेद नगरदाह के समान होता है। अपवाद से तीनों वेद परस्पर विकल्पित हैं अर्थात् प्रत्येक वेद अपने-अपने स्थान को छोड़कर शेष दो वेदों के स्थान में भी वर्तन करता है। जैसे कोई स्त्री स्त्रीवेद के समान अथवा पुरुषवेद के समान अथवा नपुंसकवेद के समान होती है। इसी प्रकार अन्यवेद भी। ५१४९.दुविहो उ पंडओ खलु, दूसी-उवघायपंडओ चेव।
उवघाए वि य दुविहो, वेए य तहेव उवकरणे॥ पंडक के दो प्रकार हैं-दूषितपंडक और उपघातपंडक। उपघातपंडक भी दो प्रकार का होता है-वेदोपघातपंडक और उपकरणोपघातपंडक। ५१५०.दूसियवेओ दूसिय, दोसु व वेएसु सज्जए दूसी।
दूसेति सेसए वा, दोहि व सेविज्जए दूसी। जिसका वेद दूषित है उसे दूषितवेद या दूषित कहा जाता है। जो दो वेदों अर्थात् नपुंसक-पुरुषवेद के साथ अथवा नपुंसक-स्त्रीवेद के साथ प्रसंग करता है वह दूषी कहलाता है। अथवा जो शेष वेदों-स्त्री-पुरुष वेदों की निन्दा करता है, वह दूषी है। जो आस्यक तथा पोसक इन दोनों द्वारा सेवित होता है या स्वयं सेवन करता है, वह दूषी कहलाता है। ५१५१.आसित्तो ऊसित्तो, दुविहो दूसी उ होइ नायव्यो।
आसित्तो सावच्चो, अणवच्चो होइ ऊसित्तो। दूषी दो प्रकार से ज्ञातव्य है-आसिक्त और उपसिक्त।
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