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चौथा उद्देशक
सरसों के दाने शिर पर पड़े हुए भी दुःख नहीं देते - इस प्रकार कह कर भी जो प्रत्यनीक नावारूढ साधुओं की नौका को नदीमुख पर छोड़ता है, जिससे कि नौका समुद्र में प्रक्षिप्त हो जाए, और साधु क्लेश पाते हुए मर जाएं। ५६३०. सिंचति ते उवहिं वा, ते चेव जले छुभेज्ज उवधिं वा ।
मरणोवधिनिप्फन्नं, अणेसिग तणादि तरपणं ॥ कोई प्रत्यनीक या नाविक साधुओं की उपधि को जल से सिंचित कर देता है अथवा उन साधुओं को और उपधि- दोनों को पानी में डुबो देता है। इस प्रसंग में आत्मविराधना में मरणनिष्पन्न तथा उपधि के विनाश में उपधिनिष्पन्न प्रायश्चित्त आता है। वह मुनि पुनः अनेषणीय उपधि ग्रहण करेगा, तृण आदि का उपयोग करेगा, उससे निष्पन्न प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। वह नाविक तरपणी (साधुओं का पात्र - विशेष) की मांग करता है, न देने पर साधुओं को रोक देता है। ये सारे प्रत्यनीक दोष हैं।
५६३१. संघट्टणाऽऽयसिंचण, उवगरणे पडण संजमे दोसा । सावत तेणे तिण्हेगतर, विराहणा संजमा - SSयाए ॥ त्रस प्राणियों की संघट्टना, स्वयं या उपकरणों की पानी से सेचन अथवा गिर पड़ना - ये संयम दोष हैं। श्वापदकृत या स्तेनकृत - यह आत्मविराधना है। तीनों में से प्रत्यनीकता, अनुकंपा, तदुभयादिरूप में से किसी एक से संयमविराधना और आत्मविराधना होती है।
५६३२. तस - उदग - वणे घट्टण,
सिंचण लोगे अ णावि सिंचणता । वुब्भण उवधाऽऽतुभये,
मगरादि समुद्दतेणा य ॥ पानी में उत्पन्न होने वाले त्रस प्राणियों का अथवा जल का या सेवालादिरूप वनस्पति का संघट्टन होता है। लोग अथवा नाविक साधु के उपकरणों का जल से सेचन कर देते हैं अथवा उपधि को या साधु को या दोनों को पानी में डुबो देते हैं। वहां मगरमच्छ आदि जानवर या समुद्री स्तेन होते हैं।
उ सावया ।
५६३३. ओहार - मगरादीया, घोरा तत्थ सरोवहिमादीया, णावातेणा य कत्थई ॥ वहां नदी में ओहार - मत्स्यविशेष तथा मगरमच्छ आदि भयंकर श्वापद होते हैं। वहां शरीरस्तेन, उपधिस्तेन तथा नौस्तेन कहीं-कहीं होते हैं।
५६३४. सावय तेणे उभयं, अणुकंपादी विराहणा तिण्णि । संजम आउभयं वा, उत्तर-णावुत्तरंते वा ॥ श्वापद, स्तेन या दोनों - यह त्रिक, अथवा अनुकंपा से,
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प्रत्यनीकता से अथवा दोनों से यह त्रिक, अथवा संयमविराधना, आत्मविराधना या दोनों - यह त्रिक उदक में उतरते हुए, नौका में आरूढ़ होने पर, नौका से उतरते हुए इस त्रिक में-इन चारों त्रिकों में प्रत्येक में अनेक प्रत्यपाय होते हैं। ५६३५. उत्तरणम्मि परुविते, उत्तरमाणस्स चउलहू होति ।
आणाइणो य दोसा, विराहणा संजमा - ऽऽताए । उत्तरण का अर्थ है-नदी को नौका के बिना पार करना । उत्तरण की प्ररूपणा का यह तात्पर्य है- जो जंघा आदि से तैर कर नदी पार करता है उसके चतुर्लघु का प्रायश्चित्त, आज्ञाभंग आदि दोष, तथा संयमविराधना और आत्मविराधना होती है।
५६३६. जंघद्धा संघट्टो, संघट्टवरिं तु लेवो जा णाभी ।
तेण परं लेवोवर, तुंबोडुव णाववज्जेसु ॥ संघट्ट का अर्थ है- पादतल से आधी जंघा का पानी में डूबना | संघट्ट के ऊपर नाभि तक जल का होना लेप है। उस लेप के ऊपर अर्थात् नाभि से ऊपर सारा लेप के ऊपर माना जाता है। पानी की गहराई स्ताघ या अस्ताघ होती है। जिस पानी में नासिका नहीं डूबती वह स्ताघ और जिसमें नासिका डूब जाए वह अस्ताघ । इतने गहरे पानी में जो बिना नौका के उतरता है, वह उत्तरण कहलाता है। उसमें आत्मविराधना और संयमविराधना- दोनों होते हैं।
५६३७. संघट्टणा य सिंचण, उवगरणे पडण संजमे दोसा । चिक्खल्ल खाणु कंटग, सावत भय वुब्भणे आया ॥ लोगों से साधु का संघट्टन होता है या साधु जल का संघट्टन करता है । उपकरणों का जल से सेचन होता है, वे जल में गिर जाते हैं - यह संयमदोष है। चिक्खल में गिर पड़ना, पैरों में लकड़ी या कांटा लग जाना, जल के श्वापदों का भय, नदी के प्रवाह में बह जाना - यह सब आत्मविराधना है।
अह पुण एवं जाणेज्जा - एरावई कुणाला जत्थ चक्किया एगं पायं जले किच्चा एगं पायं थले किच्चा एवण्हं कप्पइ अंतो मासस्स दुक्खत्तो वा तिक्खुत्तो वा उत्तरित्त वा संतरित्तए वा । जत्थ एवं नो चक्किया एवण्हं नो कप्पइ अंतो मासस्स दुक्खुत्तो वा तिक्खुत्तो वा उत्तरित्तए वा संतरितए वा ॥
(सूत्र ३० )
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