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________________ ४८८ =बृहत्कल्पभाष्यम् अत्थि या इत्थ केइ उवस्सयपरियावन्ने अचित्ते परिहरणारिहे, सच्चेव ओग्गहस्स पुव्वाणुण्णवणा चिट्ठइ-अहालंदमवि ओग्गहे। (सूत्र २९) संतों के प्रत्येक भेद में जो-जो दोष पाए जाते हैं, वे सारे दोष उनमें हैं। ४७३६.सीसोकंपण हत्थे, कण्ण दिसा अच्छि कायिगी गरिहा। वेला अहो य ह त्ति य, ___णामं ति य वायिगी गरहा। ४७३७.अह माणसिगी गरहा, सूतिज्जति णित्त-वत्तरागेहिं। धीरत्तणेण य पुणो, अभिणंदइ णेय तं वयणं॥ कायिकी गर्हा-शिरोकंपन, हस्तविलंबन, कानों को स्थगित करना, अन्य दिशा में जाकर बैठना, आंखें बंद करना, अनिमेष लोचन रहना, क्षणभर के लिए बैठना। वाचिकी गहरे-इस वेला में उनका नाम नहीं लेना चाहिए, अहो! कष्टकर है, हाहाकार करना, उनका कभी भी नाम नहीं लेना चाहिए। मानसिकी गर्दा नेत्र और मुंह के द्वारा जो रागभाव अर्थात् विकसित होना, मुरझा जाना आदि विकारों से मानसिकी गर्दा सूचित होती है। शैक्ष के वचन का अभिवंदन नहीं करना, धीरता से नहीं सुनना। इस प्रकार की गर्दा सुनकर शैक्ष के मन में अनेक आशंकाएं पैदा हो जाती हैं। ४७३८.एताणि य अण्णाणि य, विप्परिणामणपदाणि सेहस्स। उवहि-णियडिप्पहाणा, कुव्वंति अणुज्जुया केई॥ शैक्ष को विपरिणामित करने की ये बातें तथा अन्यान्य बातें भी होती हैं। वे मुनि उस शैक्ष को द्रव्य, क्षेत्र, काल, और भाव की अनुकूलता से भी अपने प्रति आकृष्ट करने का प्रयत्न करते हैं। जो अऋजु होते हैं वे उपधि- दूसरों को धोखा देने की मनोवृत्ति, निकृति–मायाचार करना ये सब विकृतियां करते हुए भी भावभंगी को छुपाने में प्रधान--निपुण-ये सारे शैक्ष के विपरिणामन करने के प्रकार हैं। ४७३९.एएसामन्नयर, कप्पं जो अतिचरेज्ज लोभेण। थेरे कुल गण संघे, चाउम्मासा भवे गुरुगा। जो आचार्य इन कल्पविधियों के अतिरिक्त कल्पविधि का लोभवश आचरण करता है तो कुल, गण, संघ, स्थविर उससे शैक्ष को ले लेते हैं तथा उस आचार्य मुनि को चार मास का गुरुक प्रायश्चित्त देते हैं। यदि कुल, गण, संघ स्थविर के कहने पर भी वह शैक्ष को नहीं छोड़ता तो उसे कुल, गण, संघ से बाह्य कर देते हैं। १. उपधिः-परवञ्चनाभिप्रायः। (वृ. पृ. १२७४) ४७४०.असहीणेसु वि साहम्मितेसु इति एस उग्गहो वुत्तो। अयमपरो आरंभो, गिहिविजढे उग्गहे होइ॥ अस्वाधीन साधर्मिक (क्षेत्रान्तर गए हुए साधर्मिकों का भी) यही अवग्रह कहा गया है। प्रस्तुत सूत्र का आरंभ गृहस्थों द्वारा परित्यक्त प्रतिश्रय के अवग्रह संबंधी है। ४७४१.आहारो उवही वा, आहारो भुंजणारिहो कोयी। दुविहपरिहारअरिहो, उवही वि य कोयि ण वि कोयि॥ सूत्र में किञ्चिद् शब्द है। उससे आहार अथवा उपधि गृहीत है। आहार दो प्रकार का होता है-भोजनाह और अभोजनाह। उपधि भी दो प्रकार की होती है-धारण करने योग्य और धारण करने के लिए अयोग्य। ४७४२.संसत्ताऽऽसव पिसियं,आहारो अणुवभोज्ज इच्चादी। झुसिरतिण-वच्चगादी, परिहारे अणरिहो उवही॥ संसक्त-द्वीन्द्रिय आदि प्राणियों से मिश्र भक्तपान, आसव-मद्य, पिशित-मांस आदि मुनियों के लिए अनुपभोज्य होते हैं। उसी प्रकार शुषिरतृण, वल्कल आदि भी परिभोग के योग्य नहीं होते। ४७४३.ठायंते अणुण्णवणा, पातोग्गे होइ तप्पढमयाए। सो चेव उग्गहो खलु, चिट्ठइ कालो उ लंदक्खा॥ प्रतिश्रय में रहते हुए मुनियों ने प्रथमतया प्रायोग्य स्थान की अनुज्ञापना की वही अवग्रह होता है। सूत्र में जो लंद शब्द है, वह काल का वाचक है। ४७४४.पुव्विं वसहा दुविहे, दव्वे आहार जाव अवरण्हे। उवहिस्स ततियदिवसे, इतरे गहियम्मि गिण्हति॥ प्रतिश्रय में पहले ही वृषभ दो प्रकार के द्रव्यों में उपयोग देते है-आहार और उपधि। जब तक अपराह्न नहीं होता तब तक वहां विस्मृत आहार को ग्रहण नहीं करते। उपधि तीसरे दिन के पश्चात् ग्रहण करते हैं। 'इतरन्' अर्थात् अर्थ आदि गृहस्थ वहां भूल गए हों तो एकान्त में निक्षिप्त कर देते हैं। यदि साहूकार उसको लेने लगे तो यथोक्त विधि से उसे ग्रहण करे। २. निकृतिः कैतवार्थं प्रयुक्तवचनऽऽकाराच्छादनं । (वृ. पृ. १२७४) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
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