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=बृहत्कल्पभाष्यम् ६०४९.निप्फावाई धन्ना, गंधे वाइग-पलंडु-लसुणाई। ६०५४.छक्कायाण विराहण, वाउभय-निसग्गओ अवन्नो य।
खीरं तु रसपुलाओ, चिंचिणि-दक्खारसाईया॥ उज्झावणमुज्झंती, सइ असइ दवम्मि उड्डाहो॥ निष्पाव-वल्ल आदि धान्य धान्यपुलाक है। मद्य, कांदा, तीनों प्रकार के पुलाक के सेवन से ये दोष यथायोग होते लहसुन आदि गंधपुलाक हैं। दूध, इमली का रस, दाक्षारस हैं-छहकाय की विराधना, वायु का प्रकोप, कायिकी और आदि रसपुलाक है।
संज्ञा का व्युत्सर्ग गृहस्थों के यहां करने पर अवर्णवाद होता ६०५०.आहारिया असारा, करेंति वा संजमाउ णिस्सारं।। है, स्थान की स्वामिनी उसी साध्वी से जहां उसने पुरीष
निस्सारं व पवयणं, द8 तस्सेविणिं बिंति॥ आदि का व्युत्सर्ग किया था, पुरीष उठवाती है या फिर स्वयं पुलाक का अर्थ है-असार। वल्ल आदि का भोजन उठाकर यथास्थान फेंकती है। शौच के लिए कलुषित द्रव है, असार है। ये सभी प्रकार के पुलाक संयम से व्यक्ति थोड़ा है या है ही नहीं तो दोनों ओर से प्रवचन का उड्डाह को निस्सार कर देते हैं। रसपुलाक का सेवन करने वाली होता है। साध्वी को देखकर प्रवचन की निःसारता को लोग कहने लग ६०५५.हिज्जो अह सक्खीवा, आसि ण्हं संखवाइभज्जा वा। जाते हैं।
___ भग्गा व णाए सुविही', दुद्दिट्ठ कुलम्मि गरहा य॥ ६०५१.आणाइणो य दोसा, विराहणा मज्जगंध मय खिंसा। लोग कहने लगते हैं-ओह! कल तो यह साध्वी मद्यमद
निरोहेण व गेलण्णं, पडिगमणाईणि लज्जाए॥ से उन्मत्त थी। गंधपुलाक का भोजन कर साध्वी जब तीनों प्रकार के पुलाक ग्रहण करने पर आज्ञाभंग आदि गोचरचर्या में जाती है और उसके अधोवायु के शब्द को दोष होते हैं। संयमविराधना और आत्मविराधना होती है। सुनकर लोग उपहास करते हुए कहते हैं-ओह! पूर्व में यह रस-पुलाक का सेवन करने पर मद्यगंध आती है, मदविह्वल शंख बजाने वाले की भार्या थी अथवा इसने वायु के शब्द से साध्वी को देखकर लोग खिंसना करते हैं। धान्यपुलाक से 'सुविही'-आंगन की मंडपिका को भी तोड़ डाला है। यह वायुप्रकुपित होती है। उसका निरोध करने से ग्लानत्व हो दुर्दष्टधर्मा है, अपने कुल को कलंकित किया है। इस प्रकार सकता है। वायु निकलने से उड्डाह होता है। तब लज्जावश उसकी गर्दी होती है। साध्वी प्रतिगमन आदि कर देती है।
६०५६.जहिं एरिसो आहारो, तहिं गमणे पुव्ववण्णिया दोसा। ६०५२.वसहीए वि गरहिया,
गहणं च अणाभोए, ओमे तहकारणेण गया। किमु इत्थी बहुजणम्मि सक्खीवा। ६०५७.गहियमणाभोएणं, वाइग वज्जं तु सेस वा भुंजे। लाहुक्कं पिल्लणया,
भिच्छुप्पियं तु भुत्तुं, जा गंधो ता न हिंडती॥ लज्जानासो पसंगो य॥ जहां ऐसा पुलाक आहार प्राप्त होता है वहां जाने स्त्री अर्थात् निर्ग्रन्थी जो सक्षीब-मद्यमदयुक्त हो, वह पर पूर्ववर्णित दोष होते हैं। अवम-दुर्भिक्ष आदि कारणों से यदि वसति में भी गर्हित होती है तो अनेक लोगों में पर्यटन वहां जाना पड़े और अनाभोग से पुलाकभक्त का ग्रहण करती हुई का तो कहना ही क्या? उसे देखकर लोग करना पड़े तो अनाभोग से गृहीत पुलाक आहार में मद्य को प्रवचन की लघुता करते हैं। उद्भ्रामक पुरुष उसकी छोड़कर शेष का भोजन कर ले। भिक्षप्रिय अर्थात कांदा।२ प्रतिसेवना करते हैं। मद के वशीभूत वह प्रलाप करती है, उसको खाने के बाद जब तक उसकी गंध रहे तब तक उसके लज्जा का नाश हो जाता है। फिर प्रतिसेवना का बाहर न जाए। प्रसंग भी आ सकता है।
६०५८.कारणगमणे वि तहिं, पुव्वं घेत्तूण पच्छ तं चेव। ६०५३.घुन्नइ गई सदिट्ठी, जहा य रत्ता सि लोयण-कवोला। हिण्डण पिल्लण बिइए, ओमे तह पाहुणट्ठा वा॥
अरहइ एस पुताई, णिसेवई सज्झए गेहे। अवम आदि स्थानों में कारणवश जाना भी पड़े तो मदभावित साध्वी को देखकर लोग कहते हैं-देखो, वहां मद्य, पलांडु, लहसुन आदि ग्रहण करना एकान्ततः इसकी गति और दृष्टि घूर्णित हो रही है। इसके लोचन और निषिद्ध हैं। यदि पहले ले लिए गए हों तो उसीका भोजन कपोल रक्त दिखाई दे रहे हैं। यह पुताकी-उद्भ्रामिका होनी कर ले, अन्य न लाए, भिक्षा के लिए न घूमे। अपवादपद में चाहिए। इसीलिए यह 'सध्वजगेह' अर्थात् कल्यपाल के घर यदि कोई साध्वियां अतिथिरूप में आ गई हों तो उनके में आती-जाती है।
भक्त-पान के लिए जाया जा सकता है। दुर्भिक्ष में १. सुविही-अङ्गणमण्डपिका। (वृ. पृ. १५९८)
२. भिक्षुप्रियं नाम-पलाण्डु। (वृ. पृ. १५९८)
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