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________________ ६९० १७. कालकाचार्य एक बार विहरण करते हुए आचार्य कालक का पदार्पण अवन्ति में हुआ। उस समय वे वृद्धावस्था में थे और अपने शिष्य वर्ग को अत्यंत जागरुकता के साथ आगम वाचना देते थे। उनके जैसा उत्साह उनके शिष्य वर्ग में नहीं था। सभी शिष्य आगम-वाचना ग्रहण करने में अत्यंत उदासीन थे। अपने शिष्यों के इस प्रमादयुक्त व्यवहार से आचार्य कालक खिन्न हो गए। वे उनको शिक्षा देने की दृष्टि से शय्यातर के पास जाकर बोले- 'मैं अपने अविनीत शिष्यों को छोड़कर, इन्हें बिना सूचित किए सुवर्णभूमि में स्थित आर्य सागर के पास जा रहा हूं। किन्तु मेरे चले जाने की सूचना उन्हें मत देना । वे आग्रह पूर्वक पूछे तब सरोष स्वरों में बताना।' शय्यातर को अच्छी तरह समझाकर गुप्त रूप से उन्होंने वहां से विहार कर दिया । बृहत्कल्पभाष्यम् वे सुदूर सुवर्णभूमि में आर्य सागर के पास पहुंचे आगम वाचनारत आर्य सागर ने उन्हें सामान्य वृद्ध साधु जानकर अभ्युत्थान आदि द्वारा उनका आदर नहीं किया। अर्थपौरुषी के समय आर्य सागर ने अपने सम्मुख बैठे हुए उस वृद्ध साधु से पूछा- वृद्ध ! मेरा कथन समझ में आ रहा है? आचार्य कालक ने हां कहकर स्वीकृति दी । आर्य सागर सगर्व बोले- वृद्ध ! एकाग्रता से सुनो। वे गंभीर मुद्रा में बैठ गए। आर्य सागर अनुयोग देने में प्रवृत्त हुए । उधर अवन्ति में आचार्य कालक के शिष्यों ने देखा उनके बीच आचार्य नहीं है। उन्होंने इधर-उधर खोज की पर वे नहीं मिले। तब शिष्यों ने शय्यातर से पूछा- आचार्य कहां गए? आग्रहपूर्वक पूछने पर कठोर शब्दों में शिष्यों से कहा- आप जैसे अविनीत शिष्यों की अनुयोग ग्रहण करने में आलस्य के कारण खेदखिन्न हुए आचार्य कालक सुवर्णभूमि में आर्य सागर के पास गए हैं। शय्यातर के कटु उपालम्भ से लज्जित, उदासीन शिष्यों ने तत्काल वहां से सुवर्णभूमि की ओर विहार कर दिया। विशाल श्रमणसंघ को विहार करते देख लोग प्रश्न करते कौन से आचार्य जा रहे हैं ? शिष्य कहते - आचार्य कालक । श्रावकवर्ग ने आर्य सागर से निवेदन किया-विशाल परिवारसहित आचार्य कालक पधार रहे हैं। अपने दादा गुरु के आगमन की बात सुनकर उन्हें अत्यंत प्रसन्नता हुई । पुलकित होकर आर्य सागर ने अपने शिष्यों को दादा गुरु के आगमन की सूचना दी और कहा- मैं उनसे गंभीर प्रश्न पूछकर समाहित हो जाऊंगा। शीघ्र गति से चलते हुए आचार्य कालक के शिष्य सुवर्णभूमि में पहुंचे और आर्य सागर के अग्रवर्ती शिष्यों से पूछा- आचार्य कालक यहां पधारे हुए हैं? उत्तर मिला एक वृद्ध श्रमण के अतिरिक्त यहां कोई नहीं आया। कौन वृद्ध ? तत्पश्चात् नवागंतुक श्रमणसंघ द्वारा अभिवंदित होते देखकर आर्य सागर ने अपने दादा गुरु आचार्य कालक को पहचाना। उन्हें अपने द्वारा कृत अविनय के कारण लज्जा की अनुभूति हुई । आर्य सागर ने कहा- मैंने बहुत प्रलाप किया है, वंदना करवा कर क्षमाश्रमण की आशातना की है, वह मेरा दुष्कृत मिथ्या हो, फिर विनम्र स्वरों में पूछा - क्षमाश्रमण। क्या मैं अनुयोग वाचना उचित प्रकार से दे रहा था? आचार्य कालक ने धूलिपुंज के उपमा से बताया तुम्हारा अनुयोग सम्यक् है पर गर्व मत करना। ज्ञान अनन्त है जैसे मुष्टि-भर धूलि राशि को एक स्थान से दूसरे स्थान पर एवं दूसरे स्थान से तीसरे स्थान पर रखते-रखते समय वह न्यून से न्यूनतर होती जाती है, वैसे ही तीर्थंकर द्वारा प्रतिपादित अर्थ गणधरों को, गणधरों से आचार्य परम्परा को यावत् हम आचार्यो - उपाध्यायों को प्राप्त हुआ है। कौन जाने किस अनुयोग के कितने पर्याय गलित हो गए ? अतः गर्व मत करना। आर्य सागर ने कहा- मेरा दुष्कृत मिथ्या हो । तब आचार्य कालक शिष्य-प्रशिष्यों को अनुयोग देने से प्रवृत्त हुए। Jain Education International For Private & Personal Use Only गा. २३९ वृ. पृ. ७३ www.jainelibrary.org
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
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