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बृहत्कल्पभाष्यम्
५१. यव राजर्षि
अवन्ति नगरी। वहां अनिलपुत्र राजा यव के गर्दभ नाम का पुत्र और अडोलिका नाम की पुत्री थी। उसके दीर्घपृष्ठ मंत्री था। गर्दभ की योग्यता देखकर उसे युवराज पद पर प्रतिष्ठित कर दिया। युवराज गर्दभ राज्य कार्य में राजा का सहयोग करने लगा। अडोलिका बड़ी होने लगी। उसका रूप लावण्य निखरने लगा। अडोलिका के रूप में गर्दभ अनुरक्त हो गया। वह उदास खिन्न रहने लगा। एक दिन मंत्री ने उसे उदासी का कारण पूछा। युवराज गर्दभ बोला-मेरा मन अडोलिका को पाना चाहता है। यह कैसे संभव हो सकता है? मंत्री बोला-मैं उसे भूमिगृह में ले आऊंगा। वहां आप उसके साथ रह सकते हैं। अडोलिका को भूमिगृह में छोड़ दिया और युवराज गर्दभ उसके साथ भोग भोगने लगा। उधर अडोलिका की खोज की तब राजा यव को यथास्थिति ज्ञात हो गई। राजा का मन विरक्त हो गया। उसने दीक्षा ग्रहण कर ली। मुनि यव अध्ययन नहीं करता। पुत्र स्नेह के कारण बार-बार अवन्ति नगरी में आने लगा।
एक बार मुनि यव ने अवन्ति की ओर विहार किया। अवन्ति के निकटवर्ती ग्राम में पहुंचकर यव के खेत के पास विश्राम कर रहा था। खेत के पास गधा घूम रहा था। खेत में यव खाना चाहता था पर रक्षापालक से डर रहा था। रक्षापालक उसे देख कर बोला-हे गर्दभ! मैं जानता हूं, तुम इधर-उधर क्यों घूम रहे हो? क्योंकि तुम यव की इच्छा कर रहे हो। 'आधावसी............' मुनि ने श्लोक सीख लिया।
आगे चला तो नगर के बाहर बच्चे गुल्ली-दंडा खेल रहे थे। खेलते-खेलते गुल्ली कहीं गिर गई। बच्चे उसे खोजने लगे। एक बच्चे ने देखा गुल्ली खड्ढे में गिर गई। तब बच्चे बोले-'इओ गया इओ गया.............' मुनि ने वह श्लोक भी सीख लिया। वह नगर में कुंभकार के उपाश्रय में ठहर गया। वहां एक चुहिया थी। रात्री में वह बार-बार बिल से बाहर आती, इधर-उधर कूदती और बिल में चली जाती। कुंभकार उस चुहिया को देखकर बोला-चुहिया में जानता हूं तुम मुझसे नहीं डर रही हो बल्कि सर्प, बिल्ली आदि से डर रही हो। 'सुकुमालग! भद्दलया!,...................' इस श्लोक को भी मुनि यव ने सीख लिया।
पृष्ठ को ज्ञात हुआ कि मुनि यव कुंभकार के उपाश्रय में ठहरे हैं। मंत्री ने राजा गर्दभ से निवेदन किया कि परिषह से हारकर मुनि यव आपसे राज्य लेने आए है। यदि विश्वास न हो तो कुंभकार के उपाश्रय की निगरानी करें, जिसमें आयुध छिपाये हुए हैं। मंत्री ने पहले से ही आयुध उपाश्रय से छिपा दिए थे। राजा मंत्री के साथ गया उपाश्रय में देखा कि आयुध पड़े हैं। राजा अपने पिता मुनि को मारने के लिए उद्यत हुआ। वह सोच रहा था कि लोगों में उड्डाह न हो। इसलिए रात की प्रतीक्षा में घर के बाहर इधर-उधर टहलने लगा। इधर मुनि यव दिन में सीखे श्लोकों का स्वाध्याय कर रहा था। राजा ने पहला श्लोक सुना 'आधावसी'....... तो राजा ने सोचा-मुनि कह रहे हैं कि तुम इधर-उधर घूम रहे हो, मैं देख रहा हूं कि तुम यव की इच्छा कर रहे हो। दूसरा श्लोक सुना-'इओ गया......' तब राजा ने सोचा मुनि कह रहे है कि इधर-उधर खोज करने पर अडोलिका कहीं दिखाई नहीं दी। पर मैं जानता हूं वह भूमिगृह में है। तीसरा श्लोक सुना–'सुकुमालगा.....' और राजा ने चिंतन किया कि मुनि बता रहे है कि हे सुकुमार! रात्री में घूम रहे हो, तुम्हें मेरा भय नहीं अपितु दीर्घपृष्ठ का भय है। राजा ने सोचा मुनि इतने ज्ञान सम्पन्न हैं, इन्होंने अपनी इच्छा से राज्य का त्याग किया है। ये क्यों राज्य लेने आयेंगे? राजा ने तत्काल मंत्री को मरवा डाला। ___ मुनि यव के पास गया। वन्दना की कृत कार्य के लिए क्षमायाचना की। मुनि यव ने चिंतन किया-इन सामान्य श्लोकों ने मुझे मृत्यु से बचा दिया। तो आगम ज्ञान से निश्चित ही जन्म-मरण के चक्र से बच जाऊंगा। ऐसा सोचकर ज्ञानाराधना में लीन हो गए।
गा. ११५५ से ११५९ वृ. पृ. ३५९
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