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________________ ४४ बृहत्कल्पभाष्यम् गाथा संख्या विषय ६२२९-६२३४ शिष्य की जिज्ञासा-यंत्रमयी नर्तकी परतंत्र होते हुए क्रिया के फल से युक्त नहीं होती तो क्षिप्तचित्त साध्वी विरुद्ध क्रियाएं करती हुई भी क्रिया फल से संबद्ध नहीं होती। आचार्य का युक्तिपूर्ण समाधान। ६२३५-६२४० व्यवहार के प्रकार तथा उनके आधार पर प्रायश्चित्त की गुरुता-लघुता। सूत्र ११ ६२४१ निर्ग्रन्थी के दीप्तचित्त ज्ञायक सूत्र का निर्देश। ६२४२-६२४९ दीप्तचित्त होने के कारण। लाभमद से मत्त विषयक सातवाहन का दृष्टान्त। ६२५० किन प्रसंगों से लाकोत्तरिक दीप्तचित्त? ६२५१-६२५५ दीप्तचित्त साध्वी को युक्तपूर्ण उपाय से स्वस्थ करने की विधि। सूत्र १२ ६२५६,६२५७ क्षिप्तचित्त और दीप्सचित्त-इन दोनों की भेदरेखा। ६२५८-६२६१ दीप्तचित्त में यक्षाविष्ट होने के दो कारण। उनसे संबंधित सपत्नी तथा मृतक सहोदर भाई का दृष्टान्त। ६२६२ यक्षाविष्ट साध्वी की चिकित्सा के लिए भूतचिकित्सा कराने का निर्देश। सूत्र १३ ६२६३ मोह जनित उन्माद के विषय का प्रतिपादक सूत्र । ६२६४-६२६७ उन्माद होने के कारण। उसके तीन प्रकार तथा उनके प्रतिकार की विधि। सूत्र १४ ६२६८ आत्मसंवेदिक उपसर्ग की परिभाषा। ६२६९,६२७० उपसर्ग के तीन प्रकार। उनका स्वरूप। मनुष्य कृत उपसर्ग के प्रतिकार की विधि। तिर्यंचकृत उपसर्गों को स्वयं निवारित करने का विधान। ६२७१-६२७५ अभियोग के दो प्रकार। दोनों को लक्षण के द्वारा जानने की विधि। अभियोजित साध्वी के प्रतिकार की विधि। ६२७६ तिर्यंचों के उपसर्ग से उपद्रुत संयती की रक्षा करने का निर्देश। अन्यथा श्रमण के लिए प्रायश्चित्त का विधान। सूत्र १५ ६२७७ किसी गृहस्थ अथवा परिजन द्वारा श्रमणी का अभिभव करने पर होने वाले कलह को मुनि द्वारा उपशांत करने का निर्देश। गाथा संख्या विषय ६२७८ संयती का गृहस्थ के साथ कलह उत्पन्न होने पर गृहस्थ को शांत और निवारित करने की विधि। सूत्र १६ ६२७९ कलह करके, क्षमायाचना कर साध्वी को प्रायश्चित्त देने की विधि। ६२८० साध्वी को प्रायश्चित्तमुक्त कब करना चाहिए? प्रायश्चित्त वहन करती हुई क्लान्त साध्वी को आश्वासन देने की विधि तथा क्षिप्तचित्त होने पर चिकित्सा कराने का निर्देश। सूत्र १७ ६२८१,६२८२ प्रायश्चित्त तप के दो प्रकार। अनशन में साध्वी को आलम्बन देना निर्ग्रन्थ के लिए कल्पनीय। ६२८३ असमाधि की अवस्था में साध्वी को समाधि उपजाने के उपाय। ६२८४ असमाधि अवस्था में साध्वी द्वारा अनशन का निर्वहन न कर सकने के कारण व्यवहारप्रायश्चित्त देने की विधि। दूसरे गच्छ में जाने पर मिथ्यादुष्कृत से शुद्धि। सूत्र १८ ६२८५ अनशनग्रहण करने वाली 'यह मेरी सेवा करेगी' इस दृष्टि से दासी आदि को दीक्षित करना कल्पनीय। ६२९६-६२९१ अर्थजात की आवश्यकता कब? कहां? इनसे संबंधित राज सेवक की भार्या, अपरिग्रहगणिका आदि का उदाहरण। ६२९२-६३०९ ऋणार्त्त को मुक्त कराने के उपाय। ऋषिकन्या और मुनिपिता का उदाहरण। परायत्त को दीक्षा देने और अनार्य देश में जाने की विधि। पलिमंथू-पदं ६३१० ६३१२ ६३१३ ६३१४ ६३१५ सूत्र १९ दर्प से परायत्त को दीक्षित अथवा अनार्य देश में विहरण करने से परिमंथ। परिमंथ क्या? उसका स्वरूप। अन्त्य षट्कद्वय का प्रारंभ। परिमंथ निक्षेप के चार प्रकार और एकार्थक नाम। द्रव्य परिमंथ तथा भाव परिमंथ के चार-चार प्रकार और उनका स्वरूप। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
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