SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 125
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तीसरा उद्देशक इसी प्रकार विचारभूमी और प्रस्रवणभूमी के विषय में भी मुनि ऋजु और अऋजु होता है अर्थात् मायी अमायी होता है। कोई मुनि धर्मकथा के मित्र से क्रमागत संस्तारक के विषय में माया करता है। उसे लघु मासिक प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। ४३९६. दुवियडुबुद्धिमलणं, सड्डा सेज्जायरेयराणं च। तित्यविवद्धि पभावण, असारियं चेव कहयते ॥ धर्मकथा करने से ये गुण निष्पन्न होते हैं-दुर्विदग्धबुद्धि का मर्दन होता है अर्थात् विपरीतशास्त्रों की पल्लवग्राहिणी बुद्धि का खंडन होता है, श्रावकों की श्रद्धा बढ़ती है, शय्यातर तथा इतर व्यक्तियों की धर्म के प्रति आस्था वृद्धिंगत होती है। तीर्थ की वृद्धि और प्रवचन की प्रभावना होती है। धर्मश्रवण के प्रति उदासीन व्यक्ति उपाश्रय में प्रवेश नहीं करते। अतः उस समय उपाश्रय असागारिक होता है और तब मुनि प्रत्युपेक्षा आदि सुखपूर्वक कर सकते हैं। धर्मकथा करने वाले के ये गुण निष्पन्न होते हैं। ४३९७.मा पयल गिण्ह संथारगं ति पयलाइ इय वि जइ वृत्तो । को नाम न निग्गिहइ, खणमित्तं तेण गुरुओ से ॥ किसी मुनि ने दूसरे मुनि से कहा- झपकियां मत लो। अपने संस्तारक (शयन करने योग्य स्थान) को ग्रहण कर लो। इतना कहने पर भी झपकियां लेते रहता है। इससे जानना चाहिए कि वह मायावी है ऐसा कौन होगा जो क्षणमात्र ( संस्तारक ग्रहण काल ) के लिए भी निद्रा पर नियंत्रण नहीं कर सकता? वह तीव्र मायावी है अतः उसे गुरुमास का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। ४३९८.विच्छिण्ण कोट्टिमतले, डहराए विसमए अ घेप्पंति । होइ अहाराहणियं राहणिया ते इमे होंति ॥ विस्तीर्ण या संकीर्ण, वसति में या कुट्टिमतल में या विषम भूभाग में रत्नाधिक मुनि के क्रम से संस्तारक ग्रहण किया जाता है। वे रत्नाधिक ये होते हैं४३९९.उवसंपज्ज गिलाणे, परित्त खमए अवाउडिय थेरे । तेण परं विच्छिण्णे, परिवाए मोत्तिमे तिनि ॥ आचार्य गुरु के लिए तीन संस्तारकों का निर्धारण करने के पश्चात् जो उपसंपन्न है, ग्लान, परीत्त उपधि वाला मुनि, क्षपक, रातभर अपावृत रहने वाला मुनि, स्थविर, संस्तारक ग्रहण करे। उसके बाद विस्तीर्ण प्रतिश्रय में पर्यायरत्नाधिक के क्रम से संस्तारक ग्रहण करने चाहिए। इन तीनों को छोड़कर - क्षुल्लक, शैक्ष और वैयावृत्त्यकर। (इनका कथन आगे किया गया है | ) ४४००, कामं सकामकिच्यो, अभिग्गहो न उ बलाभिओगेणं । तणुसाहारणहेतुं तह वि निवारहि ठावेंति ॥ Jain Education International - ४५३ यह सर्वथा अनुमत है कि अभिग्रह अपनी इच्छा से करना चाहिए बलाभियोग से नहीं मुनि शरीर के शीत उपद्रव के निवारण के लिए निर्वात प्रदेश में जाकर स्थित होता है। ४४०१. अनोनकारेण विनिज्जरा जा, न सा भवे तस्स विवज्जयेणं । जहा तवस्सी धुणते तवेणं, कम्मं तहा जाण तवोऽणुमंता ॥ जो विशिष्ट निर्जरा परस्पर वैयावृत्यकरण से होती है, वह उसके विपर्यय से नहीं होती। जैसे तपस्वी अपने तप के द्वारा कर्मों का धुनन करता है, नाश करता है, उसी प्रकार उस तपस्या का अनुमोदन करने वाला, उसका सहायक मुनि भी कर्मों का क्षय करता है (इसीलिए अपावृत रहने वाले मुनि पर अनुग्रह करना उचित है।) ४४०२. बीभेंत एव खुड्डे, वेयावच्चकरे सेहे जस्स पासम्मि | विसमऽप्पे तिन्नि गुरुणो, इतरे गहियम्मि गिण्हति ॥ क्षुल्लक मुनि स्वभावतः डरपोक होता है। अतः उसे उचित स्थान में सुलाया जाता है। वैयावृत्त्यकर ग्लान के पास तथा शैक्ष शिक्षक के पास सोए यह व्यवस्था है विषम स्थान तथा संकीर्ण स्थान वाले उपाश्रय में गुरु के लिए तीन संस्तारकों का निर्धारण करने के पश्चात् उनके द्वारा ग्रहण कर लिए जाने पर इतर मुनि यथोक्तक्रम से संस्तारक ग्रहण करें । ४४०३. बीभेज्ज बाहिं ठवितो उ खुट्टो, तेणाइगम्मो य अजग्गिरो य । सारेइ जो तं उभयं च नेई, तस्सेव पासम्मि करेंति तं तू ॥ क्षुल्लक मुनि को बाहर सुलाने पर वह डरता है तथा वह चोरों (अपहर्त्ताओं) के लिए गम्य होता है। वह जगाने पर भी नहीं जागता अतः उसका जो संरक्षक मुनि है, उसे शिक्षा देने वाला है तथा जो उसकी कायिकी संज्ञा का परिष्ठापन करता है, उसको उसी के पास सुलाया जाता है। ४४०४. संथारगं जो इतरं व मत्तं, उव्वत्तमादी व करेइ तस्स । गाइ सेहं खलु जो व मेरं, करेंति तस्सेव उ तं सगासे ॥ जो ग्लान का बिछौना करता है, जो उसकी छोटी-बड़ी संज्ञा का परिष्ठापन करता है, जो उसको उद्वर्तन - परावर्तन आदि कराता है, उसके वैयावृत्यकर को उसी के पास स्थापित करते हैं। जो शैक्ष को सामाचारी सिखाता है, उसी के पास शैक्ष को स्थापित करते हैं। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy