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पवयणसारो ]
[ ४३ भाव-पर्याय का नाश होता है तैसे ही केवल ज्ञानादि की प्रगटता रूप कार्यसमयसाररूप भाव-पर्याय का उत्पाद होता है तो भी दोनों ही पर्यायों में परिणमन करने वाले आत्म द्रव्य का ध्रौव्यपना रहता है क्योंकि आत्मा भी एक पदार्थ है । अथवा ज्ञेय पदार्थ जो ज्ञान में झलकते हैं, वे क्षण-क्षण में उत्पाद व्यय ध्रौव्य रूप परिणमन करते हैं, वैसे हो ज्ञान भी उनको जानने की अपेक्षा तीन भंग से परिणमन करता है । अथवा षट्-स्थानपतित अगुरुलघुगुण में वृद्धि व हानि की अपेक्षा तीन भंग जानने चाहिये, ऐसा सूत्र का तात्पर्य है । ॥१८॥
___ इस तरह सिद्ध जीव में व्रज्यार्थिक नय से नित्यपना होने पर भी पर्याय की अपेक्षा उत्पाद, व्यय और धोव्यपने को कहते हुए दूसरे स्थल में दो गाथाएं पूर्ण हुई ॥१८॥
तात्पर्यवसि ___ असं सामन्यन्ते ते सन्यदृष्टयो भवन्ति, परम्परया मोक्षं च लभन्त इति प्रतिपादयति,
तं सव्ववरिट्ठ इठं अमरासुरम्पहाणेहि। ये सद्दहति जीवा, तेसि दुक्खाणि खोयंति ॥१६-१॥ तं सर्वार्थवरिष्ठं इष्टं अमरापुरप्रधानः ।
ये श्रद्दधति जीवाः तेषां दुःखानि क्षीयन्ते ।।१६.१।। तं सबरिट्ठं तं सर्वार्थ वरिष्ठं इळे इष्टमभिमतम् । कैः ? अमरासुरप्पहाणेहि अमरासुरप्रधानैः । ये सवहंति ये श्रद्दधति रोचन्ते जीवा भव्यजीवाः । तेसि तेषाम् । दुःखाणि दुःखानि । खोति विनाशं गच्छन्ति, इति सूत्रार्थः ।।१६-१।।।
एवं निर्दोषिपरमात्मश्रद्धानान्मोक्षो भवतोति कथनरूपेण तृतीयस्थले गाथा गता।
उत्थानिका—आगे कहते हैं कि जो पूर्व में करे हुये सर्वज्ञ को मानते हैं, वे ही पम्यन्दष्टि होते हैं और वे हो परम्परा से मोक्ष को प्राप्त करते हैं
अन्वय सहित विशेषार्थ-(ये जीवा) जो भव्यजीव, (अमरासुरप्पहाणेहि) स्वर्गवसी देव तथा भवनत्रिक के इन्द्रों से (इट्ठ) माननीय (सम्ववरिठ्ठ) उस सर्व पदार्थों में श्रेष्ठ परमात्मा को (सहति) श्रद्धान करते हैं (तेसि) उनके (दुक्खाणि) सब दुःख (खयंति) नाश को प्राप्त हो जाते हैं।
इस तरह निर्दोष परमात्मा के श्रद्धान से मोक्ष होती है ऐसा कहते हुए तीसरे स्थर में गाथा पूर्ण हुई ॥१६-१॥
सूचना-इस गाथा को टोका श्री अमृतचन्द्रसूरि ने नहीं की है, कुछ विद्वानों के विच से यह गाथा प्रक्षिप्त है।