________________
पवयणसारो ]
[ ३७७ अस्तित्व से निश्चित ज्ञानमयी परमात्मा पदार्थरूप शद्धात्मा से अन्य ज्ञानावरणादि कर्मों के सम्बन्ध से उत्पन्न हुआ जो नद नारन आनि का स्न-हा है भदछ: संभान व छः संहनन आदि से रहित परमात्मा द्रव्य से विलक्षण संस्थान व संहनन आदि के द्वारा भेदरूप विकार रहित शुद्धात्मानुभवलक्षणरूप स्वभाव व्यंजनपर्याय से भिन्न विभाव व्यंजनपर्याय है ।।१५२॥ अथ पर्यायव्यक्तीदर्शयति
णरणारयतिरियसुरा संठाणादीहि अण्णहा जादा । पज्जाया जीवाणं उदयादिहिं णामकम्मरस ॥१५३॥
नरनारकतिर्यकासुराः संस्थानादिभिरन्यथा जाताः।
पर्याया जीवानामुदयादिभिर्नामकर्मणः ॥१५३।। नारकस्तियंङ्मनुष्यो देव इति फिल पर्याया जीवानाम् । ते खलु नामकर्मपुद्गल. विपाककारणत्येनानेकद्रव्यसंयोगात्मकत्वात् कुकूलाङ्गारादिपर्याया जातवेदसः क्षोदखिल्वसंस्थानादिभिरिव संस्थानादिभिरभ्यर्थव भूता भवन्ति ॥१५३॥
भूमिका-अब, पर्याय के भेद बतलाते हैं
अन्वयार्थ-[नामकर्मणः उदयादिभिः] नामकर्म के उदयादिक के कारण (होने बाली) । जीवानाम्] जीवों की [नरनारकतिर्यक्सुराः] मनुष्य-मारक-तिर्यंच-देवरूप [पर्यायाः] पर्याय [संस्थानादिभिः] संस्थानादि के द्वारा [अन्यथा जाताः] अन्य-अन्य प्रकार की होती हैं।
टीका-नारक, तिर्यच, मनुष्य और देव-जीवों की पर्यायें हैं। नामकर्मरूप पुद्गल के विपाक के कारण अनेक द्रव्यों के संयोगात्मकपने से जैसे तुष की अग्नि और अंगार इत्यादि अग्नि की पर्याय चूरा और डली इत्यादि आकारों से अन्य अन्य प्रकार की होती हैं, उसी प्रकार (जीव को नारकादि पर्यायें) वास्तव में संस्थानावि के द्वारा अन्यान्य प्रकार की होती हैं ॥१५३॥
तात्पर्यवृत्ति अथ तानेव पर्यायभेदान व्यक्तीकरोति
गरणास्यसिरियसुरा नरनारकतिर्यग्देवरूपा अवस्थाविशेषाः । संठाणादीहिं अण्णहा जावा संस्थानादिभिरन्यथा जाताः, मनुष्यभवे यत्समचतुरस्रादिसंस्थानमौदारिकशरीरादिकं च तदपेक्षया भवान्तरेऽभ्यद्विसदृशं संस्थानादिकं भवति । तेन कारणेन ते नरनारवादिप या अन्यथा जाता भिन्ना भण्यन्ते । न च शुद्धबुद्धकस्वभावपरमात्मद्रव्यत्वेन । कस्मात् ? तृणकाष्ठपत्राकारादिभेदभिन्नस्याग्नेरिव