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हुआ।
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[ पवयणसारा के प्रदेशों में सकम्पपना होता है उसको योग कहते हैं। उस योग के अनुसार कर्मवर्गणा योग्य पुग़लकाय आस्रवरूप होकर अपनी स्थिति पर्यत ठहरते हैं तथा अपने उपयकाल को पाकर फल देकर उड़ जाते हैं तथा केवल ज्ञानादि अनन्त चतुष्टय की प्रगटतारूप मोक्ष से प्रतिकूल बन्ध के कारण रागादिकों का निमित्त पाकर फिर भी द्रध्यबन्ध रूप से बंध जाते हैं। इससे यह बताया गया कि रामादि परिणाम ही द्रव्यबंध का कारण हैं अथवा इस गाथा से दूसरा अर्थ यह कर सकते हैं कि 'प्रविशन्ति' शब्द से प्रदेशबंध, प्रतिष्ठन्ति' से स्थितिबंध, यान्ति से फल देकर जाते हुए अनुभागबंध और 'बध्यन्ते' से प्रकृतिबन्ध ऐसे चार प्रकार बंध को समझना ।
इस तरह तीन तरह बंध के कथन की मुख्यता से दो सूत्रों से तीसरा स्थल पूर्ण अथ द्रव्यबन्ध हेतुत्वेन रागपरिणाममात्रस्य भावबन्धस्य निश्चयबन्धत्वं साधयति
रत्तो बंधदि कम्मं 'मुच्चदि कम्मेहिं रागरहिवप्पा । एगो बंध समालो जीवाणं जाण णिच्छयदो ॥१७६॥
रक्तो बध्नाति कर्म मुच्यते कर्मभिः रागरहितात्मा।
एष बन्धसमासो जीवानां जानीहि निश्चयतः ॥१७६।। यतो रागपरिणत एवाभिनवेन द्रव्यकर्मणा बध्यते न वैराग्यपरिणतः, अभिनवेन द्रन्यकर्मणा रागपरिणतो न मुध्यते वैराग्यपरिणत एव, बध्यत एवं संस्पृशतवाभिनवेन द्रव्यकर्मणा चिरसंचितेन पुराणेन च न मुच्यते रागपरिणतः, मुच्यत एवं संस्पृशतैवाभिनवेन द्रव्यकर्मणा चिरसंचितेन पुराणेन च वैराग्यपरिणतो न बध्यते । ततोऽवधार्यते न्यबन्धस्य साधकतमत्वाद्रागपरिणाम एवं निश्चयेन बन्धः ॥१७६।।
भूमिका-अब, यह सिद्ध करते हैं कि-राग परिणाममात्र जो भावबन्ध है, द्रष्यबन्ध का हेतु होने से वही निश्चय से बंध है
अन्वयार्थ-[रक्तः] रागी आत्मा [कर्म बध्नाति] कर्म बांधता है, [रागरहितात्मा] राग रहित आत्मा [कर्मभि: मुच्यते] कर्मों से मुक्त होता है-[एषः] यह [जीवानां] जीवों के [बंध समासः] बंध का संक्षेप (कथन) [निश्चयतः] निश्चय से [जानीहि ] जानो।
टीका-रागपरिणत जीव ही नवीन द्रव्यकर्म से बंधता है, वैराग्यपरिणत नहीं । रागपरिणत जीव नवीन द्रव्यकर्म से मुक्त नहीं होता, वैराग्यपरिणत ही मुक्त होता है ।
१. मुचंदि (ज० वृ०)।