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[ पवयणसारो अथ प्रवृत्तेः कालविभागं दर्शयति
रोगेण वा छुधाए तण्हाए वा समेण वा रूढं । दिट्ठा समणं साहू पडिवज्जदु आवसत्तीए ॥२५२।।
रोगेण वा क्षुधया तृष्णया वा श्रमेण वा रूढम् ।
दृष्ट्वा श्रमणं साधुः प्रतिपद्यतामात्मशक्त्या ॥२५२।। यदा हि समधिगतशुद्धात्मवृत्तः श्रमणस्य तत्प्रच्यावनहेतोः कस्याप्युपसर्गस्योपनिपातः स्यात् स शुभोपयोगिनः स्वशक्त्या प्रतिचिकीर्षा प्रवृत्तिकालः । इतरस्तु स्वयं शुद्धात्मवृत्तेः समधिगमनाय केवलं निवृत्तिकाल एव ॥२५२॥
भूमिका-अब, प्रवृत्ति के काल का विभाग बतलाते हैं
अन्वयार्थ [रोगेण वा] रोग से, क्षुधया क्षुधा से. [नुष्णया वा] तृपा से श्रमेण वा] अथवा थकावट से [रूढम्] पीडित [श्रमणं] श्रमण को [दृष्ट्वा ] देखकर [साधुः] साधु [आत्मशक्त्या] अपनी शक्ति के अनुसार [प्रतिपद्यताम्] वयावृत्यादि करे ।
टीका-जब शुद्धात्मपरिणति में भले प्रकार लीन श्रमण को, उससे च्युत करने वाला कारण-कोई भी उपसर्ग-आ जाय, तब शुभोपयोगी को अपनी शक्ति के अनुसार उपसर्ग को दूर करने के लिये प्रवृत्ति करने का काल है, और उसके अतिरिक्त काल अपनी शुद्धात्मपरिणति की प्राप्ति के लिये केवल निवृत्ति का काल है ॥२५२॥
तात्पर्यवृत्ति कस्मिन्प्रस्ताने वैयावृत्त्यं कर्त्तव्यमित्युपदिशति
पडिवज्दु प्रतिपद्यतां स्वीकरोतु । कया ? आदसत्तीए स्वशक्त्या स कः कत्ता ? साहू रत्नत्रयभावनया स्वात्मानं साधयतीति साधुः । कम् ? समणं जीवितमरणादिसमपरिणामत्वाच्छमणस्तं श्रमणम् दिवा दृष्टवा । कथंभूतं ? रूढं रूई व्याप्त पीडितं कथितम् केन ? रोगेण वा अनाकुलवलक्षणपरमात्मनो बिलक्षणेनाकुलत्वोत्पादकेन रोगण व्याधिविशेषेण वा छुहाए क्षुधया तण्हाए वा तृप्णया वा समेण वा मार्गोपवासादिश्रमेण वा । अत्रेदं तात्पर्यम्-स्वस्वभावनाविघातकरोगादिप्रस्तावे यावृत्त्यं करोति शेषकाले स्वकीयानुष्ठान करोतीति ।।२५२।।
उत्थानिका-आगे कहते हैं कि किस समय साधुओं की वैयावृत्य की जाती है
अन्वय सहित विशेषार्थ-(रोगेण) रोग से (वा क्षुहाए) वा भूख से (तण्हाए वा) दा प्यास से (समेण वा) वा थकान से (रूढं) पीडित (समणं) किसी साधु को (विट्ठा) देखकर (साधू) साधु (आदसत्तीए) अपनी शक्ति के अनुसार (पडियज्जदु) उसका वैयावृत्य करे । जो रत्नत्रय की भावना से अपने आत्मा को साधता है वह साधु है। ऐसा साधु किसी दूसरे
१. छुहाए (ज• वृ०)।