________________
परिशिाह .. [अब टोकाकार श्री अमृतचन्द्राचार्यदेव परिशिष्टरूप से कहते हैं--]
ननु कोऽयमात्मा कथं चावाप्यत इति चेत्, अभिहितमेतत पुनरप्यभिधीयते । आत्मा हि तावच्चतन्यसामान्यच्याप्तानन्तधर्माधिष्ठात्रेक द्रव्यमनन्तधर्मव्यापकानन्तनयध्याप्येकश्रुतज्ञानलक्षणप्रमाणपूर्वकस्वानुभवप्रमीयमाणत्वात् । तत्तु व्यनयेन पटमात्रयश्चिन्मात्रम् ॥१॥ पर्यायनयेन तन्तुमात्रबद्दर्शनज्ञानादिमात्रम् ॥२॥ अस्तित्त्वनयेनायोमयगुणकामु कान्तरालबतिसंहितावस्थलक्ष्योन्मुखविशिखवत - 'यह भात्मा कौन है और फैसे प्राप्त किया जाता है इस शंका का उत्तर कहा जा चुका है, और (यहां) फिर भी कहते हैं
पहले तो आत्मा वास्तव में चैतन्य सामान्य से व्याप्त अनन्तधर्मों का अधिष्ठाता (स्वामी) एक द्रव्य है, क्योंकि वह आत्म-द्रव्य अनन्तधर्मों में व्यापक जो अनन्त नय उनमें व्याप्त एक श्रुतज्ञान जिसका लक्षण है उस प्रमाणपूर्वक स्वानुभव से ज्ञात होता है।
- वह आत्मद्रव्य द्रव्यनय से, पटमात्र की मांति चिन्मात्र है, (अर्थात् आत्मा द्रव्यनय से एक स्वरूप है ॥१॥
आत्मद्रव्य पर्यायनय से, तंतुमात्र की मांति वशंनज्ञानादिमात्र है, अर्थात् आत्मा पर्यायनय से नाना स्वरूप है ॥२॥
मात्मद्रव्य अस्तित्वनय से स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से अस्तित्व बाला है।-लोहमय, प्रत्यंचा (डोरी) और धनुष के मध्य में निहित, संधानवशा में रहे हुये और लक्ष्योन्मुख वाण की भांति (जैसे कोई वाण स्वद्रव्य से लोहमय है, स्वक्षेत्र से प्रत्यञ्चा और धनुष के मध्य में निहित है, स्वकाल से संधान दशा में है, अर्थात् धनुष पर चढ़ाकर खींची हुई दशा में है, और स्वभाव से लक्ष्योन्मुख है अर्थात् निशान की ओर है, उसी प्रकार आत्मा स्वद्रव्य से चैतन्य मय है, स्वक्षेत्र से लोकाकाश में निहित है, स्वकाल से वर्तमान पर्याय स्वरूप है, स्वभाष से पदार्थों को जान रहा है । ॥३॥ . .