Book Title: Pravachansara
Author(s): Kundkundacharya, Shreyans Jain
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 678
________________ ६५० ] | पवयणसारो अब उस ही आशय को काव्य द्वारा कहकर, यह कथन समाप्त किया जाता है कि 'आत्मा कैसा है ?' मालिनी छन्द) स्यात्कारश्रीवास वश्यनयोधः पश्यन्तीत्थं वेतु प्रमाणेन चापि । पश्यन्त्येव प्रस्फुटानन्तधर्मस्वात्मव्यं शुद्ध चिन्मात्रमत्तः ॥१६॥ अर्थ- - इस प्रकार स्थात्कारश्री (स्यात्काररूपी लक्ष्मी ) के निवास के वशीभूत वर्तते नयसमूहों से देखें तो भी और प्रमाण से देखें तो भी स्पष्ट अनन्तधर्मों वाले निज आत्मद्रश्य को भीतर में शुद्ध चैतन्यमात्र देखते ही हैं । इस प्रकार आत्मद्रव्य कहा गया। अब उसकी प्राप्ति का प्रकार ( उपाय ) कहा जाता है इत्यभिहितमात्मद्रव्यमिदानीमेतदवाप्तिप्रकारोऽभिधीयते-अस्य तावदात्मनो नित्यमेवानाविपौद्गलिककर्मनिमित्तमोहभावनानु नाव कूणितात्मवृत्तितया तोयाकरस्येवात्मन्येव क्षुभ्यतः क्रमप्रवृत्ताभिरनन्त भिज्ञेतिव्यक्तिभिः परिवर्तमानस्य ज्ञप्तिव्यक्तिनिमित्ततथा जयभूतासु बहिरर्थव्यक्तिषु प्रवृत्तमंत्रीकस्य शिथिलितात्म विवेकतयात्यन्त बहिर्मुखस्य पुनः पौद्गलिककमं निर्मापकरागद्वेषद्वैतमनुवर्तमानस्य दूरत एवात्मावाप्तिः । अथ यदा त्वयमेव प्रचण्डकर्मकाण्डोच्चण्डीकृताखण्डज्ञानकाण्डत्वेनानादिपौद्गलिक कर्मनिमितस्य मोहस्य वध्यघातक विभागज्ञानपूर्वक विभागकरणात् केवलात्मभावानुभावनिश्वलोकृतवृत्तितया तोयकर इवात्मन्येवातिनिःप्रकम्पस्तिष्ठन् युगपदेव व्याप्यानन्ता ज्ञप्तिव्यक्ती रवकाशाभावान्न जातु विवर्तते, तदास्य ज्ञप्तिव्यक्तिनिमित्ततया ज्ञेयभूतासु बहिरर्थव्यक्तिषु न नाम मंत्री प्रवर्तते । ततः सुप्रतिष्ठितात्मविवेकतयात्यन्तमन्तर्मुखीभूतः पौद्गलिककर्मनिर्मापरागद्वेषानुवृत्तिदूरीभूतो दूरत एवानुभूतपूर्व पूर्वज्ञानानन्वस्वभावं भगवन्तमात्मानमवाप्नोति । अवाप्नो त्वेव ज्ञानानन्दात्मानं जगदपि परमात्मानमिति । ( १ ) अनादि पौद्गलिक कर्म के निमित्त से होने वाली मोह भावना ( मोह के अनुभव के) प्रभाव से सदा चक्कर खाती हुई आत्म-परिणति के द्वारा समुद्र के समान ( जो आत्मा) अपने में ही क्षुब्ध है, | २] क्रमशः प्रवर्तमान अनन्त ज्ञप्तियों को व्यक्तियों (जाननरूप पर्यायों) के द्वारा ओ परिवर्तन को प्राप्त है [३] इग्लियों की व्यक्तियों के लिये जो निमित्त है ऐसे ज्ञेयभूत बाह्य पदार्थों में जिसकी मंत्री प्रवर्तती है विवेक के शिथिल (अभाव) होने से अत्यन्त बहिर्मुख है, [ ५ ] पौगलिक कर्म (ज्ञानावरणादि) को रचने वाले ऐसे राग द्वेषरूप जो परिणमित होते हैं ( रागद्वेष रूप आत्मा के परिणाम ज्ञानावरणादि पौद्गलिक कर्मों के रचने वाले हैं, वे रागद्वेषरूप परिणाम आत्मा में होते हैं), उपरोक्त पांच विशेषण वाले इस आत्मा को आत्म-प्राप्ति दूर है । ४ ] आत्मा [

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