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[ पवयणसारो [किन्तु] स्याद्वाद विद्या बल से विशुद्ध ज्ञान की कला द्वारा इस एक समस्त शाश्वत स्वतत्त्व को प्राप्त करके आज [लोगो] अव्याकुलरूप से नाचो [परमानन्द परिणामरूप परिणत होमो ।
[अब काव्य द्वारा चैतन्य की महिमा गाकर, वही एक अनुभव करने योग्य है ऐसी प्रेरणा करके इस परम पवित्र परमागम को पूर्णाहुति की जाती है---]
इति गदितमनीचस्तस्वमुच्चावचं यत्, चिति तदपि किलाभूत्कल्पमग्नौ हुतस्य । अनुभुवतु तच्चेपिचच्चिदेवाघ यस्माद, अपरमिह न किचित्तत्त्वमेकं परं चित् ॥२२॥
अर्थ---इस प्रकार [ इस परमागम में] अमन्यतया [बलपूर्वक, जोरशोर से] जो थोड़ा बहत तत्त्व कहा गया है, वह सब चैतन्य के मध्य वास्तव में अग्नि में होमी गई वस्तु के समान [स्थाहा] हो गया है। [अग्नि में होमे गये घी को अग्नि खा जाती है, मानो कुछ होमा ही न गया हो । इसी प्रकार अनन्त माहात्म्यवन्त चतन्य का चाहे जितना वर्णन किया जाय तो भी मानो उस समस्त वर्णन को अनन्त महिमावान् चैतन्य खा जाता है, चंतन्य की अनन्त महिमा के निकट सारा वर्णन मानो वर्णन ही न हुआ हो, इस प्रकार तुच्छता को प्राप्त होता है । ] उस चेतन्य को ही आज प्रबलता-उग्रता से चसन्य अनुभव करो अर्थात् उस चितस्वरूप आत्मा को ही आत्मा आज आत्यन्तिकरूप से अनुभव करो क्योंकि इस लोक में दूसरा कुछ भी [उत्तम] नहीं है, चतन्य ही परम [उत्तम] तस्व है।
इस प्रकार तस्वदीपिका नामक संस्कृत टीका समाप्त हुई।