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पवयणसारो ]
[ ६५१ परन्तु जब यही आत्मा प्रचण्ड कर्मकाण्ड द्वारा अखण्ड ज्ञानकाण्ड को प्रचण्ड करने से अनादि-पौद्गलिक कर्मरचित मोह को बध्य-धातक के विभागज्ञानपूर्वक विभक्त करने से स्वयं केवल आत्म-भावना के (आत्मानुभव के) प्रभाव से परिणति को निश्चल करने से समुद्र की भांति अपने में ही अति निष्कंप रहता हुआ एक साथ हो अनन्त ज्ञप्ति व्यक्तियों में व्याप्त होकर अवकाश के अभाव के कारण सर्वथा वियतन (परिवर्तन) को प्राप्त नहीं होता, तब जाप्त की व्यक्तियों के निमित्त कारण होने से जो ज्ञेयभत हैं, ऐसी बाह्य-पदार्थ की व्यक्तियों के प्रति उसे वास्तव में मंत्री प्रतित नहीं होती है, इसलिये आत्म-विवेक को सुप्रतिष्ठितता (सुस्थिति) के द्वारा अत्यन्त अन्तमख होकर तथा पौद्गलिक कर्मों के जो रचयिता ऐसी रागद्वेषद्वैतरूप परिणति से दूर होकर यह आत्मा पूर्व में अनुभव नहीं किये गये अपूर्व ज्ञानानन्दस्वभावी भगवान् आत्मा को आत्यन्तिक रूप से ही प्राप्त करता है । जगत् भी ज्ञानानन्दात्मक परमात्मा को अवश्य प्राप्त करो। भवति चात्र श्लोक:
आनंदामृतपूरनिर्भरवहत्केवल्यकल्लोलिनीनिर्मग्नं अगदीक्षणक्षममहाससंवेदनश्रीमुखम् । स्यात्काराबजिनेशशासनवशादासाहयतालसतस्वं
तत्त्वं वृतजात्यरत्नकिरणप्रस्पष्ट मिष्टं जनाः ॥२०॥ अर्थ--आनन्वामृत के पूर से भरपूर बहती हुई फैवल्यसरिता में [मुक्तिरूपी नदी में] जो डबा हुआ है, जगत् को देखने में समर्थ महासंवेदनरूपी श्री [महाज्ञानरूपी लक्ष्मी] जिसमें मुख्य है, जो उत्तम रत्न-किरण की भांति स्पष्ट है और जो इष्ट है ऐसे उल्लसित [प्रकाशमान-आनन्दमय] स्वतत्व को जन स्यात्कारलक्षण वाले जिनेश-शासन के वश से प्राप्त हों। [स्याकार' जिसका चिह्न है ऐसे जिनेन्द्र भगवान् के शासन का
आश्रय लेकर के प्राप्त करो ]
(शार्दूल-विक्रीडित छन्द) व्याख्येयं किस विश्वमात्मसहितं ध्यास्या त गम्फो गिरा, व्याख्यातामृतचन्द्रसूरिरिति मा मोहाज्जनो वल्गतु । बलगत्वच विशुद्धबोधकलया स्पाद्वादविद्याबलात,
लश्यक सकलात्मशाश्वतमिदं स्वं तत्त्वमव्याकुलः ॥२१॥ 'आत्मा सहित विश्व व्याख्येय [समझाने योग्य ] है, वाणी का गुंथन व्याख्या है और अमृतचन्द्रसूरि व्याख्याता है' इस प्रकार मनुष्यों ! मोह से मत नाचो [मत फूलो].