Book Title: Pravachansara
Author(s): Kundkundacharya, Shreyans Jain
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 672
________________ ६४४ ] [ पश्यणसारो द्रव्यनयेन माणवकष्ठिश्रमणपार्थिवषदनागलातीतपर्यायोद्भासि ॥१४॥ भावनयेन पुरुषायितप्रवृत्तयोषिदृसदात्वपर्यायोल्लासि ॥१५॥ सामान्यनघेनहारनपदामसूत्रवयापि ॥१६॥ विशेषनयेन तदेकमुक्ताफल वदम्यापि ।।१७।। नित्यनयन नटवदवस्थायि ॥१८॥ अनित्यनपेन रामरावणवदनवस्थायि ॥१६॥ सर्वगतनयेन विस्फारिताच वत्सर्ववति ।।२०॥ असर्वगतनयेन मीलिताक्षत्राववात्मवति ॥२१॥ और अतीतपर्याय से प्रतिभासित होता है अर्थात् आत्मा द्रव्यनय से भावी और भूत पर्यायरूप से लक्षित होता है। जैसे सेठ का बालक सेठरूप भावी पर्याय से और मुनि राजारूप भूतपर्याय से लक्षित होते हैं ॥१४॥ आत्मद्रव्य भावनय से, पुरुष के समान प्रवर्तमान स्त्री की मांति, तत्काल (वर्तमान) को पर्यायरूप से उल्लसित-प्रकाशित प्रतिभासित होता है अर्थात् आत्मा भावनय से वर्तमान पर्यायरूप से प्रकाशित होता है, जैसे कि प्रवर्तमान स्त्री वर्तमान पुरुषरूप पर्याय से प्रतिभासित होती है ॥१५॥ आत्मद्रव्य सामान्यनय से, हार-माला-कंठी में डोरे की भांति, व्यापक है, अर्थात् आत्मा सामान्यनय से सवं पर्यायों में व्याप्त होकर रहता है, जैसे मोती की माला का डोरा सारे मोतियों में व्याप्त होकर रहता है । ॥१६॥ __ आत्मद्रव्य गाय से, के एक लो यो जाति, व्यापक है, अर्थात् आत्मा विशेषनय की अपेक्षा मात्र विवक्षित पर्याय स्वरूप होने से द्रव्य की समस्त पर्यायों में व्यापक न होने से अध्यापक है, जैसे पूर्वोक्त माला का एक मोती सारी माला में अध्यापक है ।१७॥ आत्मद्रव्य नित्यनय से, नट की भांति, अवस्थायी है, अर्थात् आत्मा नित्यनय से नित्य-स्थायी है. जसे राम-रावणरूप अनेक अनित्य स्वांग धारण करता हुआ भी नट तो यह का बही नित्य है। इस प्रकार आत्मा भी मनुष्य तिर्यच आदि पर्यायों को धारण करता हुआ भी आत्मद्रव्य तो वह का वही है, इसलिये नित्य है ॥१८॥ __ आत्मद्रव्य अनित्यनय से, राम-रावण की मांति, अनवस्थायी है अर्थात् आत्मा अनित्यनय से अनित्य है, जैसे नट राम-रावण रूप स्वांग की अपेक्षा अनित्य है। उसी प्रकार आत्म द्रव्य भी पर्यायाथिक नय की अपेक्षा अनित्य है ॥१६॥ ___आत्मद्रव्य सर्वगतनय से खुली हुई आंख की भांति, सर्ववर्ती (सब में व्याप्त होने वाला) है। [ज्ञान जानने की अपेक्षा सर्व पदार्थों में जाता है, इसलिये सर्वगत है।] ॥२०॥ आत्मद्रव्य असर्वगतनय से, मीनी हुई (बन्द) आंख की भांति, आत्मवर्ती (अपने में रहने वाला है। [प्रवेशत्व गुण की अपेक्षा आत्मद्रव्य अपने प्रदेशमात्र में रहने से आत्मवर्ती है असवंगत है।] ॥२१॥

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