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पवयणसारो ।
[ ६३६ इस तरह श्री जयसेन आचार्यकृत तात्पर्यवृत्ति में पूर्व में कहे कम से "एससुरासुर" इत्यादि एक सौ एक गाथाओं तक सम्यग्ज्ञान का अधिकार कहा गया। फिर “तम्हा तस्स गमाई" इत्यादि एक सौ तेरह गाथाओं तक ज्ञेय अधिकार या सम्यग्दर्शन नाम का अधिकार कहा गया । फिर "तब सिद्ध णय सिद्धे" इत्यादि सत्तानवे गाथा तक चारित्र का अधिकार कहा गया । इस तरह तीन महा अधिकारों के द्वारा तीन सौ ग्यारह गाथाओं से यह प्रवचनप्राभूत पूर्ण किया गया । इस तरह प्रवचनसार की तात्पर्यवृत्ति टोका समाप्त हुई।
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जयसेनाचार्यकृत प्रशस्ति। अज्ञानतमसा लिप्तो मार्गों रत्नत्रयात्मकः । तत्प्रकाशसमर्थाय नमोऽस्तु कुमुदेन्दवे ॥१॥ सरिः श्री वीरसेनाख्यो मूलसंघेपि सत्तपाः। नम्रन्थ्यपदवीं भेजे जातरूपधरोपि यः ॥२॥ ततः श्री सोमसेनोऽभूद्गणी गुणगणाश्रयः । ततिनेयोस्ति यस्तस्मै जयसेनतपोभते ॥३॥ शीघ्र बभूव मालु साधुः सदा धर्मरतो वदान्यः । सनुस्ततः साधुमहीपतिर्यस्तस्मादयं चारुमटस्तनूजः ।।४।।
- यः संततं सर्वविदः सपर्यामार्यक्रमाराधनया करोति ।
स श्रेयसे प्राभूतनामग्रन्थपुष्टात् पितुर्भक्ति विलोपभोरुः ॥५॥ श्रीमन्त्रिभुवनचंनं निजमतवाराशितायना चन्द्रम् । प्रणमामि कामनामप्रबलमहापर्वतैकशतधारम् ॥६॥ जगत्समस्तसंसारिजीवाकारणबन्धवे।
सिंधवे गुणरत्नानां नमत्रिभुवनेन्दवे ॥७॥ त्रिभुवनचंनं जं नौमि महासंयमात्तमं शिरसा । यस्योदयेन जगतां स्वान्ततमोराशिकृन्तनं कुरुते ॥६॥
अर्थ--अज्ञानरूपी अन्धकार से यह रत्नत्रयमय मोक्षामार्ग लिप्त हो रहा है उसके प्रकाश करने को समर्थ श्री कुमुदचन्द्र या पाचन्द्र मुनि को नमस्कार हो। इस मूलसंघ में परम तपस्त्री निर्ग्रन्थ पदधारी नग्नमुद्रा शोभित श्री बीरसेन नाम के आचार्य हो गये हैं। उनके शिष्य अनेक गुणों के धारी आचार्य श्री सोमसेन हुए। उनका शिष्य यह जयसेन तपस्वी हुआ। सदा धर्म में रत प्रसिद्ध मालु साधु नाम के हुए हैं। उनका पुत्र साधु महीपति हुआ है, उससे यह चारुभट नाम का पुत्र उपजा है, जो सर्वज्ञान प्राप्त कर सदा आचार्यों के चरणों की आराधना पूर्वक सेवा करता है, उस चारुभट अर्थात जयसेनाचार्य ने जो अपने पिता को भक्ति के विलोप करने से भयभीत था इस प्रवचन प्राभूत नाम ग्रन्थ की टीका को है। श्रीमान त्रिभुवनचन्द्र गुरु को नमस्कार करता है, जो आत्मा के भावरूपी जल को बढ़ाने के लिये चन्द्रमा के तुल्य हैं और कामदेव नामक प्रबल महापर्वत के सैकड़ों टुकड़े करने वाले हैं। मैं श्री त्रिभुवनचन्द्र को नमस्कार करता हूँ जो जगत् के सब संसारो जीवों के निष्कारण बन्धु हैं और गुण रूपी रत्नों के समुद्र हैं, फिर मैं महासंयम के पालने में श्रेष्ठ चन्द्रमातुल्य श्री त्रिभुवनचन्द्र को नमस्कार करता हूँ जिसके उदय से जगत के प्राणियों के अन्तरंग का अन्धकार समूह नष्ट हो जाता है।
इति प्रशस्ति