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पवयणसारो ।
[ ६३७ अनुभूतिरूप बोतराग चारित्र या निश्चय सम्यक्चारित्र है । जो कोई शिष्यजन अपने भीतर "रत्नत्रय ही उपादेय है, इन्हीं का साधन कार्यकारी है" ऐसी रुचि रखकर, बाहरी रत्नत्रय का साधन श्रावक के है, बाहरी रत्नत्रय के आधार से निश्चयरत्नत्रय का अनुष्ठान (साधन) मुनि का आचरण है । अर्थात् प्रमत्तगुणस्थानवर्ती आदि तपोधन की चर्या है-जो श्रावक या मुनि इस प्रवचनसार नाम के ग्रन्थ को समझता है वह थोड़े ही काल में अपने परमात्मपद को प्राप्त कर लेता है ॥२७॥ ... इस तरह पांच गाथाओं के द्वारा पंच रत्नमय पञ्चम स्थल का व्याख्यान किया गया। इस तरह बत्तीस गाथाओं से व पांच स्थलों से शुभोपयोग नाम का चौथा अन्तर अधिकार समाप्त हुआ।
. इस तरह श्री जयसेन आचार्यकृत तात्पर्यवृत्ति टीका में पूर्वोक्त क्रम से "एवं पणमिय सिद्धे” इत्यादि इक्कीस गाथाओं से उत्सर्ग चारित्र का अधिकार कहा, फिर "ण हि णिरवेक्खो चागो" इत्यादि तीस गाथाओं से अपवाद चारित्र का अधिकार कहा, पश्चात् "एयग्गगदो समणो" इत्यादि चौदह गाथाओं से श्रामण्य या मोक्षमार्ग नाम का अधिकार कहा-फिर इसके पीछे “सममा सुद्ध वजुत्ता" इत्यादि बत्तीस गाथाओं से शुभोपयोग नाम का अधिकार कहा इस तरह चार अन्तर अधिकारों के द्वारा सत्तानवे गाथाओं में चरणानुयोग चूलिका नामक तीसरा महा अधिकार समाप्त हुआ ।।३।।
प्रश्न-यहां शिष्य ने प्रश्न किया कि यद्यपि पूर्व में बहुत बार आपने परमात्म पदार्थ का व्याख्यान किया है तथापि संक्षेप से फिर भी कहिये ?
. उसर-तब आचार्य भगवन्त कहते हैं--
जो केवलज्ञानादि अनन्त गुणों का आधारभूत है वह आत्मद्रव्य कहा जाता है उसी की ही परीक्षा नयों से और प्रमाणों से की जाती है ।
प्रथम ही शुद्ध निश्चयनय को अपेक्षा यह आत्मा उपाधि रहित स्फटिक के समान सर्व रागद्वेषादि विकल्पों की उपाधि से रहित है । वही आत्मा अशुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा उपाधि सहित स्फटिक के समान सर्व रागद्वेषादि विकल्पों की उपाधि सहित है, वही आत्मा शुद्ध सद्भूत व्यवहारनय से शुद्ध स्पर्श, रस, गंध, वर्गों के आधारभूत पुद्गल परमाणु के समान केवलज्ञानादि शुद्ध गुणों का आधारभूत है, वही आत्मा अशुद्ध सद्भूत व्यवहारनय से अशुद्ध स्पर्श, रस, गंध, वर्ण के आधारभूत दो अणु, तीन अणु आदि परमाणुओं के अनेक स्कंधों की तरह मतिज्ञाम आदि विभाव गुणों का आधारभूत है । वही आत्मा अनुपचरित असद्भूत-व्यवहारनय से द्वयणुक आदि स्कंधों के सम्बन्ध रूप बंध में स्थित पुद्गल परमाणु की तरह अथवा परमौदारिक शरीर में वीतराग सर्वज्ञ की तरह विवक्षित एक शरीर में