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[ पवयणसारो
शुभयोगात्मक जीवों को सेवा, उपकार या दान करने वाले जीवों को जो केवल अधम पुण्य की प्राप्ति है सो वह फल विपरीतता है, वह (फल) कुदेव और कुमनुष्यत्य है ।। २५७॥
तात्पर्य वृत्ति
अथ सम्यक्त्वव्रत रहित पात्रेषु भक्तानां कुदेवमनुजत्वं भवतीति प्रतिपादयति ; - फलदि फलति । केषु ? कुदेवेसु मणुवेसु कुत्सितदेवेषु मनुजेषु । किं कर्तृ ? जुट्ठं जुष्टं सेवा कृता कद व कृतं वा किमपि वैयावृत्यादिकं । दत्तं दत्तं किमप्याहारादिकम् । केषु ? पुरुसेसु पुरुषेषु पात्रेषु । कविशिष्टेषु ? अविविदपरमस्थेसु य अविदितपरमार्थेषु च परमात्मतत्त्वश्रद्धानज्ञानशून्येषु । पुनरपि किं रूपेषु ? विसयकसायाधिगेसु विषयकषायादिकेषु विषयकपायाधीनत्वेन निर्विषयशुद्धात्मस्वरूपभावनारहितेषु इत्यर्थः ।।२५७ ।।
उत्थानिका—आगे फिर भी कहते हैं कि जो जीव सम्यग्दर्शन तथा व्रत रहित पात्रों के भक्त हैं वे नीच देव तथा मनुष्य होते हैं
अन्वय सहित विशेषार्थ - ( अविदितपरमरथेसु) जो परमार्थ अर्थात् सत्यार्थ पदार्थों को नहीं जानते व जिनको परमात्मा के तत्व का श्रद्धान ज्ञान नहीं है (य विषयकसायाधिनेस) तथा जिनके भीतर पंचेंद्रियों के विषयों की तथा मान लोभ आदि कषायों की बड़ी प्रबलता है ऐसे ( पुरिसेस) पात्रों में (जुट्ठ) की हुई सेवा (कद ) किया हुआ वैयावृत्यादिक ( व दत्तं ) या बिया हुआ आहार औषधि आदि दान (फुवेथेसु) नीच देवों में (मणुजेसु) और मनुष्यों में ( फलदि) फलता है। जिन पात्रों या साधुओं के परमात्मतत्त्व का ज्ञान श्रद्धान नहीं है, जो विषय कषायों के अधीन होने के कारण निर्विकार शुद्धात्मा के स्वरूप की भावना से रहित हैं उनकी भक्ति के फल से नीच देव तथा मनुष्य हो सकता है ।। २५७॥ अथ कारणवैपरीत्यात् फलमविपरीतं न सिध्यतीति श्रद्धापयतिजदि ते बिसयकसाया पाव त्ति परूविदा व सत्थेसु ।
किह ते तपsिबद्धा पुरिसा णित्यारगा होंति ॥ २५८ ॥ यदि ते विषयक पायाः पापमिति प्ररूपिता वा शास्त्रेषु ।
कथं ते तत्प्रतिबद्धाः पुरुषा निस्तारका भवन्ति ॥ २५६ ॥
विषय कषायास्तावत्पापमेव तद्वन्तः पुरुषा अपि पापमेव तदनुरक्ता अपि पापानुरक्तत्वात् पापमेव भवन्ति । ततो विषयकषायवन्तः स्वानुरक्तानां पुण्यायापि न कल्प्यन्ते कथं पुनः संसारनिस्तारणाय । ततो न तेभ्यः फलमविपरीतं सिध्येत् ॥ २५८ ॥
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भूमिका – अब, यह श्रद्धा करवाते हैं कि कारण की विपरीतता से अविपरीत फल सिद्ध नहीं होता-
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