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पवयणसारो ]
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व्यवहाररूप) आगम में कहे हुए नय विभाग को नहीं जानते हैं वे हो रागद्वेष करते हैं, अन्य रागद्व ेष नहीं करते ॥ २६७॥
इस प्रकार " एयग्गगदो" इत्यादि चौदह गाथाओं के द्वारा चार स्थलों में श्रामण्य जिसका दूसरा नाम मोक्षमार्ग है तीसरा अंतराधिकार समाप्त हुआ ।
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समुदायपातनिका -- इसके पश्चात् ३२ गाथा पर्यंत पांच स्थलों के द्वारा शुभोपयोग अधिकार का कथन किया जाता है। उसके आदि में लौकिक जन के संसर्ग के निषेध की मुख्यता से "णिच्छिदसुत्तत्थपदों" इत्यादि पाठ क्रम से पांच गाथा हैं २६८ - २७० ) शुभोपयोग उसके स्वरूप के कथन की सूत्र हैं उसके पश्चात् पात्र-अपात्र की इत्यादि छह गाथा हैं इसके पश्चात्
तजुन"
उसके पश्चात् सरागसंयम द्वारा दूसरा नाम प्रधानता से "समणा इत्यादि परीक्षा का कथन करने वाली "रागो पसत्थभूदो" आचार आदि विहित क्रम से पुनः संक्षेप रूप से समाचार के व्याख्यान की प्रधानता से "कागद वत्यु" इत्यादि आठ गाथा हैं । उसके पंचरत्न की मुख्यता से "जे अजधा गहिदत्था" इत्यादि पांच गाथा हैं (२७१ - २७५ ) इस प्रकार चौथे अधिकार में पांच स्थलों की ३२ गाथाओं की समुदायपातनिका ने ( जिन स्थलों पर उनकी गाथा नहीं हैं। प्रथम स्थलों में भी पांच गाथा की २६८ के पश्चात् एक गाथा अनुकम्पा के स्वरूप का कथन 'लौकिक जन संसर्ग' से कोई सम्बन्ध नहीं है । अतः 'लौकिक जन संसर्ग' के स्थल में तीन हो गाथा हैं पांच नहीं हैं ।
यह चिन्ह है वे स्थल या बजाय तीन गाथा हैं। गाथा करने वाली है किन्तु उसका
अथासत्संग प्रतिषेध्यत्वेन दर्शयति
णिच्छिदसत्तत्थपदो समिदकसाओ तवोधिगो' चावि ।
लोगिगजनसंसगं ण चयदि जदि संजदो ण हवदि ॥ २६८ ॥ निश्चित सूत्रार्थपदः समितकषायस्तपोऽधिकश्चापि ।
लौकिक जनसंसर्ग न त्यजति यदि संयतो न भवति ॥ २६८ ॥
यतः सकलस्यापि विश्ववाचकस्य सल्लक्ष्मणः शब्दब्रह्मस्तद्वाध्यस्य सकलस्यापि सल्लक्ष्मणो विश्वस्य च युगपदनुस्यूततदुभयज्ञेयाकारतयाधिष्ठानभूतस्य सल्लक्ष्मणो ज्ञातृतत्तस्य निश्चयनयान्निश्चितसूत्रार्थपदत्वेन निरुपरागोपयोगत्वात् समितकषायत्वेन बहुशो - अभ्यस्तनिष्कम्पोपयोगत्वा तपोऽधिकत्वेन च सुष्ठु संयतोऽपि सप्ताचिः संगतं तोयमिवावश्यंमाविविकारत्वात् लौकिकसंगादसंयत एव स्यात्ततस्तत्संगः सर्वथा प्रतिषेध्य एव ॥ २६८ ।। १. अधिगो (ज० वृ०) |