Book Title: Pravachansara
Author(s): Kundkundacharya, Shreyans Jain
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 662
________________ ६३४ ] [ पवयणसारो रहित अनन्त सुख आदि गुणों को आधारभूत पराधीनता से रहित स्वाधीन निर्वाण का लाम होता है । जो शुद्धोपयोगी है वही लौकिक माया, अंजन, रस, दिग्विजय, मंत्र, यंत्र आदि सिद्धियों से विलक्षण, अपने शुद्ध आत्मा को प्राप्तिरूप, टांकी में उकेरे के समान मात्र ज्ञायक एक स्वभावरूप तथा ज्ञानावरणादि अष्टविध कर्मों से रहित होने के कारण से सम्यक्त्व आदि आठ गुणों में गभित अनन्त गुण सहित सिद्ध भगवान हो जाता है । इसलिये उसो हो शुद्धोपयोगी को निर्दोष निज परमात्मा में ही आराध्य आराधक संबंध रूप भावनमस्कार हो। भाव यह कहा गया है इस मोक्ष के कारणभूत शुद्धोपयोग के हो द्वारा सर्व इष्ट मनोरथ प्राप्त होते हैं। ऐसा मानकर शेष सर्व मनोरथ को त्यागकर इसी शुद्धोपयोग की ही भावना करनी योग्य है ॥२७४॥ अथ शिष्यजनं शास्त्रफलेन योजयन शास्त्रं समापयति बुज्झदि सासणमेयं सागारणगारचरियया जुत्तो। जो सो पवयणसारं लहुणा कालेज पापोदि ॥२७॥ बुध्यते शासनमेतत् साकारानाकारचर्यया युक्तः । यः स प्रवचनसारं लघुना कालेन प्राप्नोति ॥२७५॥ यो हि नाम सुविशुद्धज्ञानदर्शनमात्रस्वरूपव्ययथितवृत्तसमाहितत्वात् साकारानाकारचर्यया युक्तः सन् शिष्यवर्गः स्वयं समस्तशास्त्रार्थविस्तरसंक्षेपात्मकश्रुतज्ञानोपयोगपूर्वकानुभावन केवलमात्मानमनुभवन् शासनमेतद्बुध्यते स खलु निरवधित्रिसमयप्रवाहावस्थायित्वेन सकलार्थसात्मिकस्य प्रवचनस्य सारभूतं भूतार्थस्वसंवेद्यदिव्य ज्ञानानन्दस्वभावमननभूतपूर्व भगवन्तमात्मानमवाप्नोति ॥२७५॥ इति तत्त्वबीपिकायां धीमवमृतचन्द्रसूरिविरचितायां प्रवचनसारवृत्तौ चरणानुयोग-सूचिका चूलिका नाम तृतीयः श्रुतस्कन्धः समाप्तः। भमिका---अब (भगवान् कुन्दकुन्दाचार्य देव) शिष्यजन को शास्त्र का फल बतलाते हुये शास्त्र समाप्त करते हैं अन्वयार्थ-[यः] जा [साकारानाकारचर्यया युक्तः] श्रावक, मुनिचर्या को पालता है और [एतत् शासन] इस शास्त्र को [बुध्यते] जानता है, [सः] वह [लघुना कालेन] अल्पकाल में [प्रवचनसारं] प्रवचन के सार को अर्थात् मोक्ष को [प्राप्नोति] पाता है । टीका--सुविशुद्धज्ञानदर्शन मात्र स्वरूप में अवस्थित होने से श्रावक मा मुनिचर्या को पालता हुआ जो शिष्यवर्ग स्वयं समस्त शास्त्रों के अर्थों के विस्तार संक्षेपात्मक श्रुतज्ञानोपयोगपूर्वक अनुभव द्वारा केवल आत्मा को अनुभवता हुआ, इस शास्त्र को जानता है वह वास्तव में, सत्यार्थ स्वसंवेद्य-दिव्य ज्ञानानन्द जिसका स्वभाव है ऐसे, पहले कभी अनु

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