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पवयणसारो ।
[ ६२५ तस्मात्समं गुणात् श्रमणः श्रमणं गुणाधिकम् ।
अधिवसतु तत्र नित्यं इच्छति यदि दुःखपरिमोक्षम् ।।२७०।। प्रतःपरिणामस्वभावमानः सरतातिरंगनं नोमिनावश्यंभाविविकारत्वाल्लोकिकसंगासंयतोऽप्यसयत एव स्यात् । ततो दुःखमोक्षार्थिना गुणः समोऽधिको वा श्रमणः श्रमणेम नित्यमेनाभिवसनीय: तथास्य शीतापवरककोणनिहितशीसतोयवत्समगुणसंगानुकरक्षा शीततरतुहिमाशीरालपक्तशीत्ततोयवत् गुणाधिकसंगात गुणवृद्धिः ॥२७०॥
त्यध्यास्य शुभोपयोगजनितां कांचित्प्रवृति यतिः, सम्यक् संयमलौष्ठवेन परमां कामग्निवृत्ति क्रमाद । हेलाकाखसमस्तवस्तुविसरप्रस्ताररम्योदयां, ज्ञानानन्दमयी दशामनुभवत्वेकान्ततः शाश्वतीम् ॥१७॥
-इति शुभोपयोगप्रजापनम् । अथ पञ्चरत्नम् ।
शादलविक्रीडित छन् । सन्त्रस्यास्म शिवण्डमण्डनमिव प्रयोतयत्सर्वतोद्वैतीयीकमथाहतो भगवलः संक्षेपतः शासनम् । ग्याकुबजगतो विलक्षणपथां संसारमोक्षस्थिति, जीयात्संप्रति पञ्चरत्नमनघं सूत्ररिमः पञ्चभिः ॥१८॥
भूमिका--अब, सत्संग करने योग्य है, यह बतलाते हैं
अन्वयार्थ-[तस्मास्] (क्योंकि लौकिकजन के संग से संयत भी असंयत होता है। इसलिये [यदि] यदि [श्रमणः] श्रमण [दुःखपरिमोक्षम् इच्छति] दुःख से परिमुक्त होना चाहता हो तो वह [ गुणात् सम] समान गुणों वाले श्रमण के [वा] अथवा [गुणैः अधिक श्रमणं तत्र] अधिक गुणों वाले श्रमण के संग में [नित्यम्] सदा [अधिवसतु] निवास करे।
टोका-क्योंकि मारमा परिणामस्वभाव वाला है इसलिये लौकिक संग से विकार अवश्यंभावी होने से संयत भी असंयत हो जाता है जैसे अग्नि के संग से पानी उष्ण हो जाता है । इसलिये दुःखों से मुक्ति चाहने वाले श्रमण को (१) समान गुण वाले श्रमण के साथ अथवा (२) अधिक गुण वाले श्रमण के साथ सवा ही निवास करना चाहिये (१) जैसे शीतल घर के कोने में रखेए शीतल पानी के शीतल गुण की रक्षा होती है, उसी प्रकार समान गुण वाले की संगति से उस श्रमण की गुणरक्षा होती है और (२) जैसे अधिक शीतल हिम (बर्फ) के संपर्क में रहने वाले शीतल पानी के शीतल गुण में वृद्धि होती है, उसी प्रकार अधिक गुण पाले के संग से उस श्रमण के गुणति होती है ॥२७॥
श्लोकार्थ-इस प्रकार शुभोपयोगजनित किंचित् प्रवृत्ति का सेवन करके यति * शार्दूलविक्रीडित छन्द ।