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पवयणसारो ]
[ ६२७ है तैसे ही व्यवहारिक या लौकिक जन को संगति से संयमी का संयम गुण नाश हो जाता है, ऐसा जानकर तपोधन को अपने समान या अपने से अधिक गुणधारी तपोधन का ही आश्रय करना चाहिये । जो साधु ऐसा करता है उसके रत्नत्रयमय गुणों की रक्षा अपने समान गुणधारी की सपति से इस तरह होती है जसे शीतल पात्र में रखने से शीतल जल की रक्षा होती है और जैसे उसी जल में कपूर शक्कर आदि ठंडे पदार्थ और डाल दिये जावें तो उस जल के शीतलपने को वृद्धि हो जाती है। उसी तरह निश्चय-व्यवहार रत्नत्रयरूप गुणों में जो अपने से अधिक हैं उनकी संगति से साधु के गुणों की वृद्धि होती है, ऐसा इस गाथा का अर्थ है ॥२७॥
अथ संसारतत्त्वमुद्घाटयति
जे अजधागहिदत्था एवे तच्च ति णिच्छिवा समये । अच्चंतफलसमिद्धं भमंति ते तो परं कालं ॥२७१॥
ये अयथागृहीतार्था एते तत्त्वमिति निश्चित्ताः समये।।
अत्यन्तफलसमृद्धं भ्रमन्ति ते अतः परं कालम् ।।२७१॥ ये स्वयमविवेकतोऽन्यथैव प्रतिपद्यानित्यमेव तत्त्वमिति निश्चयमारचयन्तः सततं समुपचीयमानमहामोहमलमलीमसमानसतया नित्यमज्ञानिनो भवन्ति ते खलु समपे स्थिता अप्यनासादिसपरमार्थश्रामण्यतया श्रमणाभासाः सन्तोऽनन्तकर्मफलोपभोगप्राग्मारभयंकरमनन्तकालमनन्तभावान्तर परावर्तेरनवस्थितवृत्तयः संसारतत्त्वमेवावबुध्यताम् ।।२७१॥
भूमिका—अब संसारतत्व को प्रगट करते हैं
अन्वयार्थ- [ये | जो [समये] समय में (आगम में) स्थित हैं वे [एते तत्वम् 'यह तत्त्व है (वस्तु स्वरूप ऐसा ही है) | इति निश्चिताः] इस प्रकार निश्चयवान् वर्तते हुये [अयथागृहीतार्थाः] पदार्थों को अयथार्थतया ग्रहण करते हैं (जैसे नहीं है वैसा समझते है) [ते] वे [अतः परं कालं] अब से आगामी काल में [अत्यन्तफलसमृद्धम् ] अत्यन्तफलसमृद्ध अनन्त फल से भरे हुये संसार में [भ्रमन्ति] परिभ्रमण करेंगे ।
टीका-जो स्वयं अविवेक से पदार्थों को अन्यथा ही समझ करके 'ऐसा ही तत्त्व है। ऐसा निश्चय करते हुये, निरन्तर एकत्रित किये जाने वाले महा मोहमल से मलिन मन वाले होने से नित्य अज्ञानी हैं, वे समय में-आगम में स्थित होने पर भी परमार्थ श्रामण्य को प्राप्त न होने से वास्तव में श्रमणाभास वर्तते हुये, अनन्त कर्मफल को उपभोगराशि से भयंकर ऐसे अनन्त काल तक अनन्त भवान्तररूप परावर्तनों से (संसार में) अनवस्थित वृत्ति वाले रहने से उनको संसारतत्त्व ही जानना अर्थात् वे संसार में परिभ्रमण करते हैं ॥२७१।।