Book Title: Pravachansara
Author(s): Kundkundacharya, Shreyans Jain
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 658
________________ ६३० ] [ पधयणसारो जीवति न तिष्ठति क्व ? अफसे शुद्धात्मसंवित्तिसमुत्पन्नसुखामृतरसास्वादरहित्वेनाफले फलरहिते संसारे । किं ? शीघ्न मोक्षं गच्छतीति । अयमत्र भावार्थः-इत्थंभूतमोक्षतत्वपरिणत पुरुषएवाभेदेन मोक्षस्वरूपं ज्ञातव्यमिति ।।२७२।। उत्थानिका-आगे मोक्ष का स्वरूप प्रकाश करते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ—(अजधाचारविजुत्तो) विपरीत आचरण से रहित, (जदस्थपणिच्छिदो) यथार्थ पदार्थों का निश्चय रखने वाला तथा (पसंतप्पा) शांत स्वरूप (संपुण्णसामाणो) पूर्ण मुनिपद का धारी (सो) ऐसा साधु (इह अफले) इस असार संसार में (चिरं ण जीवदि) बहुत काल नहीं जीता है । निश्चय व्यवहार सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-सम्यकचारित्र-सभ्यषतप-सम्यग्वीर्य ऐसे पांच आचारों की भावना में परिणमन करते रहने से जो अयथाचार व विरुद्ध आंचार से रोहत है, सहज ही आनन्द रूप एक स्वभावधारी अपने परमात्मा को आदि लेकर पदार्थों के ज्ञान-साहित होने से जो यथार्थ वस्तु स्वरूप का ज्ञाता है तथा विशेष परम शांत भाव में परिणमन करने वाले अपने आत्मद्रव्य को भावना सहित होने से जो शांतात्मा है ऐसा पूर्ण साधु शुद्धात्मा के अनुमब से उत्पन्न सुखामृत रस के स्वाद से रहित ऐसे इस फल-रहित संसार में दीर्घकाल तक नहीं ठहरता है अर्थात् शीघ्र ही मोक्ष प्राप्त कर लेता है। इस तरह मोक्षतत्त्व में लीन पुरुष ही अभेद नय से मोक्ष स्वरूप है ऐसा जानना योग्य है ॥२७२॥ अथ मोक्षतत्त्वसाधनतत्त्वमुद्घाटयति सम्म विविवपवत्था चत्ता उबिहित्थमज्मत्थं । विसयेसु णावसता जे ते सुद्ध' त्ति णिद्दिदछा ।।२७३।। सम्यग्विदितपदार्थास्त्यक्त्वोपधि बहिःस्थमध्यस्थम् । विषयेषु नावसक्ता ये ते मुद्धा इति निर्दिष्टाः ॥२७३।। अनेकान्तकलितसकलजातज्ञेयतत्ययथावस्पितस्वरूपपाण्डित्यशौण्डाः सन्तः समस्तबहिरङ्गान्तरङ्गसङ्गतिपरित्यागविविक्तान्तश्चकचकायमानानन्तशक्तिचतन्यभावस्वरात्मतत्त्वस्वरूपाः स्वरूपगुप्तसुषप्तकल्पान्तस्तत्त्ववत्तितया विषयेषु मनागप्यासक्तिमनासादयन्त: समस्तानुभावयन्तो भगवन्तः शुद्धा एवासंसारघटितविकटकर्मकपाटविघटनपटीयसाध्यवसायेन प्रकटोक्रियमाणाववाना मोक्षतत्वसाधनतत्त्वमवबुध्यताम् ॥२७३॥ भूमिका--अब, मोक्षतत्त्व का साधनतत्त्व प्रगट करते हैं१. सुद्भत्ति (जव०)।

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