________________
६२८ ]
[ पश्यणसारो तात्पर्यवृत्ति इतः परं पंचमस्थले संक्षेपेण संसारस्वरूपस्य मोक्षस्वरूपस्य.च प्रतीत्यर्थं पंचरलभूतगाथापंचकेन व्याख्यानं करोति
तद्यथा-अथ संसारस्वरूपं प्रकटयतिः-जे अजधागहिवत्था वीतरागसर्वज्ञप्रणीतनिश्चयव्यवहाररलत्रयार्थपरिज्ञानाभावात् येऽयथागृहीतार्थः विपरीतगृहीतार्थः पुनरपि। कथंभूताः ? एदे तच्चत्तिणिछिदा एतेतत्त्वमितिनिश्चिताः, एते ये मयाकथिताः पदार्थास्त एव तत्त्वमिति निश्चिताः निश्चयं कृत वन्तः क्व स्थित्वा ? समये निर्ग्रन्थरूपद्रव्यसमये अभवंतफलसमिद्धभमंति से तो परं कालं अत्यन्तफलसमृद्धंभ्रमन्ति न विद्यतेऽन्त इत्यत्यन्तं ते पर कालं द्रव्य क्षेत्रकालभवभावपञ्चप्रकारसंसारपरिभ्रमणरहितशुद्धात्मस्वरूपभावनाच्युताः सन्तः परिभ्रमन्ति। कम् ? परं कालं अनन्तकालम् । कथंभूतम् ? नारकादिदुःखरूपात्यन्तफलसमृद्धं । पुनरपि कथंभूतम् ? अतो बर्तमानकालात्परं भाविनमिति । अयमत्रार्थ:इत्थंभूतसंसारपरिभ्रमणपरिणतपुरुषा एवाभेदेन संसारस्वरूपं ज्ञातव्यमिति ॥२७१४ .. ..
उत्थानिका--आगे पांचवें स्थल में संक्षेप से संसार का स्वरूप, मोक्ष का स्वरूप, मोक्ष का साधन, सर्व मनोरथ स्थान लाभ तथा शास्त्रपाठ का लाभ इन पांच रत्नों को पांच गाथाओं से व्याख्यान करते हैं। प्रथम ही संसार का स्वरूप प्रगट करते हैं
अन्वय सहित विशेषार्थ-(जे) जो कोई (अजधागहिवस्था) अन्य प्रकार से असत्य पदार्थो के स्वभाव को जानते हुये (एवे तच्चत्तिसमये) ये ही आगम में तत्व कहे हैं ऐसा (णिच्छिदा) निश्चय कर लेते हैं ( ते तो) वे साधु इस मिथ्या श्रद्धान व ज्ञान के कारण माविकाल में (अच्चन्तफलसमिद्ध) अनन्त दुःखरूप फल से भरे हुए संसार में (परं काल) अनन्त काल तक (भमंति) भ्रमण करते हैं। (जो कोई साधु या अन्य आत्मा सात तत्त्व नव पदार्थों का स्वरूप स्याद्वाद नय के द्वारा यथार्थ न जानकर और का और श्रद्धान कर लेते हैं और यही निर्णय कर लेते हैं कि आगम में तो यही तत्त्व कहे हैं) वे मिथ्या श्रद्धानी या मिथ्याज्ञानी जीव द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव, भाव स्वरूप पांच प्रकार संसार के भ्रमण से रहित शुद्ध आत्मा की भावना से हटे हुए इस वर्तमान काल से आगे भविष्य में भी नारकावि दुःखों के अत्यन्त कटुक फलों से भरे हुए संसार में अनन्तकाल तक भ्रमण करते रहते हैं। इसलिये इस तरह संसार भ्रमण में परिणमन करने वाले पुरुष ही अभेदनय से संसार स्वरूप जानने योग्य हैं ॥२७१॥
अथ मोक्षतस्वमुद्घाटयति
अजधाचारविजुत्तो जधत्थपदणिच्छिदो पसंतप्पा ।
अफले चिरं ण जीवदि इह सो संपुण्णसामण्णो ॥२७२॥ १. सदस्थपदणिच्छिदो (३० ब०)।