Book Title: Pravachansara
Author(s): Kundkundacharya, Shreyans Jain
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 652
________________ ६२४ ] [ पवयणसारो प्रतिज्ञातपरमनन्थ्यप्रव्रज्यत्वादुदूढसंयमतपोभारोऽपि मोहबहुलतया श्लथीकृतशुद्धचेतनव्यवहारो मुहुर्मनुष्यव्यवहारेण ध्याधूर्णमानत्वादेहिककानिवृती लौकिक इत्युच्यते ।।२६६॥ भूमिका-अब, 'लौकिक' (जन) का लक्षण कहते हैं अन्वयार्थ-[नग्रंथ्यं प्रजितः] जो (जीव) निग्रंथरूप से दीक्षित होने के कारण [संयमतपःसंप्रयुक्तः अपि] संयम तप संयुक्त होने पर भी, [यदि सः] यदि वह [ऐहिक: कर्मभिः वर्तते] इस लोक संबंधी कार्यों को करता है तो वह भी [लौकिक: इति. भणितः] 'लौकिक' कहा गया है। टीका-परमनिर्ग्रन्थतारूप प्रव्रज्या की प्रतिज्ञा लेकर जो जीव संयम तप के भार को वहन करता है, वह भी, यदि मोह की बहुलता के कारण शुद्धचेतन व्यवहार को छोड़कर निरन्तर मनुष्य व्यवहार में चक्कर खाने से लौकिक कार्यों को करता हो तो, 'लौकिक' कहा जाता है ॥२६॥ तात्पर्यवृत्ति अथ लौकिकलक्षणं कथयति; णिगंथं पन्यविदो वस्त्रादिपरिग्रहरहितत्वेन निग्रन्थोऽपि दीक्षाग्रहणेन प्रबजितोऽपि यदि जदि वर्तते यदि चेत् । कै: ? एहिगेहि कम्मेहि ऐहिकः कर्मभिः भेदाभेदरत्नत्रयभावनाशकः ख्यातिपूजालाभनिमित्तै ज्योतिषमन्त्रवादवेदिकाभिरहिकजीवनोपायकर्मभिः सो लोगिगो ति मणिदो स लौकिको व्यवहारिक इति भणितः । कि विशिष्टोऽपि ? संजमतवसंझुदो चावि द्रव्यरूपसंयमतपोभ्यां संयुक्तश्चापीत्यर्थः ।।२६६। उत्थानिका-आगे लौकिक साधु जन का लक्षण बताते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ:-(णिग्गंथं पश्ययिदो) निग्रंथ पद की दीक्षा को धारता हुआ (जदि) यदि (एहिगेहि कम्मेहि) लौकिक व्यापारों में (वट्टदि) वर्तता है (सो) वह साधु (संजमतवसंपजुत्तावि) संयम और तप सहित है तो भी (लोगिगोवि भणिदो) लौकिक है, ऐसा कहा गया है। जिसने वस्त्रादि परिग्रह को त्यागकर व मुनि पद की दीक्षा लेकर यति पद धारण कर लिया है ऐसा साधु यदि निश्चय और व्यवहाररत्नत्रय के नाश करने वाले भाव जो अपनी प्रसिद्धि, बड़ाई 4 लाभ के बढ़ाने के कारण ज्योतिष कर्म, मन्त्र, यन्त्र, वंद्यक आदि लौकिक गृहस्थों के जीवन के उपायरूप व्यापारों के द्वारा वर्तन करता है तो वह द्रव्य संयम व ख्य सप को धारता हुआ भी लोकिक अथवा व्यावहारिक कहा जाता है ॥२६६॥ अथ सत्संग विधेयत्वेन दर्शयति तम्हा समं गुणावो समणो समणं गुहिं वा अहियं । अधिवसदु तम्हि णिच्चं इच्छवि जदि दुक्खपरिमोक्खं ॥२७०॥

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