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पवयणसारो 1
[ ६१६ अन्वय सहित विशेषार्थ—(अवि) यदि (जोवि) जो कोई साधु भी (समणो ति होमि) मैं साधु हूँ ऐसा मानकर (गुणदोधिगस्स) अपने से गुणों में जो अधिक है उसके द्वारा (विणयं) अपनी विनय (पडिमछगो) चाहता है तो (सो) वह साधु (गुणाधरो) गुणों से रहित (होज्ज) होता हुमा (अणंतसंसारी होति) अनन्त संसार में भ्रमण करने वाला होता है । मैं श्रमण हूँ, इस पर्व से जो साधु अपने से व्यवहार निश्चयरत्नत्रय के साधन में अधिक है ऐसे उस अन्य साधु के द्वारा अपनी बन्दना आदि विनय की इच्छा करता है और वह स्वयं निश्चय व्यवहाररत्नत्रयरूपी गुण से हीन है तो वह साधु कथंचित् अनन्त संसार में भ्रमण करने वाला होता है। यहां यह भाव है कि यदि कोई गुणाधिक से अपने विनय को वांछा गर्व से करे, परन्तु पीछे भेदज्ञान के बल से अपनी निन्दा करे तो अनन्त संसारी न होबे अथवा कालान्तर में भी अपनी निन्दा करे तो भी दीर्घ संसारी न होवे, परन्तु जो मिथ्या अभिमान से अपनी बड़ाई, पूजा वलाम के अर्थ दुराग्रह या हरु धारण करे सो अवश्य अनन्तसंसारी हो जावेगा ॥२६६॥
अथ श्रामण्येनाधिकस्य हीन सममिथाचरतो विनाशं दर्शयति
अधिगगुणा सामण्णे वट्टति गुणाधरेहि किरियासु। जदि ते मिच्छवजुत्ता' हवंति पन्भट्टचारित्ता ॥२६७॥
अधिकगुणाः श्रामण्ये वर्तन्ते गुणाधरैः क्रियासु ।।
___ यदि ते मिथ्योपयुक्ता भवन्ति प्रभ्रष्टचारित्राः ।।२६७।। स्वयमधिकगुणा गुणाधरः परैः सह क्रियासु वर्तमाना मोहायसम्पगुपयुक्तत्वाच्चारित्राभ्रश्यन्ति ॥२६७॥
भूमिका—अब, जो श्रमण श्रामण्य से अधिक हो यह जो अपने से ही श्रमण के प्रति अपने बराबरी जैसा आचरण करे तो उसका विनाश है, ऐसा उपदेश देते हैं।
अन्वयार्थ-[यदि श्रामण्ये अधिकगुणा:] जो श्रामण्य में अधिक गुण वाले हैं, तथापि [गुणाधरैः] हीन गुण वालों के प्रति [क्रियासु] वंदनादि क्रियाओं में [वर्तन्ते] वर्तते हैं, [ते] वे [मिथ्योपयुक्ताः] मिथ्यात्व से उपयुक्त होते हुये [प्रभ्रष्टचारित्राः भवन्ति] चारित्र से भ्रष्ट होते हैं।
टीका-जो स्वयं अधिक गुण वाले होने पर भी अन्य हीन गुण वाले श्रमणों के प्रति वंदनादि क्रियाओं में वर्तते हैं वे मोह के कारण असम्यक् से उपयुक्त होते हुये चारित्र से भ्रष्ट होते हैं।
१. मिच्छत्तपउत्ता (ज० वृ०)।