Book Title: Pravachansara
Author(s): Kundkundacharya, Shreyans Jain
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 646
________________ ६१८ 1 [ पवयणसारो इस प्रकार समाचार विशेष को कहते हुए चौथे स्थल में गाथाएं आठ पूर्ण हुई। अथ श्रामण्येनाधिकं होनमिवाचरतो विनाशं दर्शयतिगुणदोधिगस्स विणयं पडिच्छगो जो वि' होमि समणो ति । होज्जं गुणाधरो जदि सो होवि अणंतसंसारी ॥२६६।। गुणतोऽधिकस्य विनयं प्रत्येषको योऽपि भवामि श्रमण इति । भवन् गुणाधरो यदि स भवत्यनन्तसंसारी ॥२६६।। स्वयं जघन्यगुणः सन् श्रमणोऽहमपीत्यवलेपात्परेषां गुणाधिकानां विनयं प्रतीच्छन् श्रामष्यावलेपयशात कदाचिदनन्तसंसार्यपि भवति ॥२६६॥ भमिका-अब, जो श्रामण्य में अधिक हो उसके प्रति जैसे कि यह श्रामण्य में होन। (अपने से मुनिपने में नीचा) हो ऐसा आचरण करने वाले का विनाश होता है, ऐसा बतलाते हैं अन्वयार्थ---[यः] जो श्रमण [यदि गुणाधरः भवन् अपि ] गुणों में हीन होने पर भी [श्रमणः भवामि] 'मैं भी श्रमण हूँ' [इति] ऐसा गर्व करके [गुणतः अधिकस्य] गुणों में अधिक श्रमण से [विनयं प्रत्येषकः] विनय चाहता है [सः] वह [अनन्तसंसारी भवति] अनन्त संसारी होता है। टीका-जो श्रमण स्वयं जघन्य गुणों वाला होने पर भी 'मैं भी श्रमण हैं', ऐसे गर्य के कारण दूसरे अधिक गुण वाले श्रमणों से विनय की इच्छा करता है, वह श्रामण्य के गर्व के वश से कदाचित् अनन्त संसारी भी होता है ॥२६६॥ तात्पर्यवृत्ति अथ स्वयं गुणहीनः सन् परेषा गुणाधिकानां योऽसौ विनयं वाञ्छति तस्य गुणविनाशं दर्शयति ; सो होदि अणंतसंसारी स कथंचिदनन्तसंसारी सम्भवति । यः किं करोति ? पहिच्छगो जो दु प्रत्येषको यस्तु अभिलाषकोऽपेक्षक इति । कम् ? विणयं वन्दनादिविनयम् । कस्य सम्बन्धिनम् ? गुणदोधिगस्स बाह्याभ्यन्तररत्नत्रयगुणाभ्यामधिकस्यान्यतपोधनस्य । केन कृत्वा ? होमि समणोत्ति अहमपि श्रमणो भवामीत्यभिमानेन गण। यदि किम् ? होज्जं गुणाधरो जवि निश्चयव्यवहाररत्नवयगुणाभ्यां हीनः स्वयं यदि चेद्भवतीति । अयमत्रार्थः–यदि चेद्गुणाधिकेभ्यः सकाशाद्गर्वेण पूर्व बिनयवाञ्छां करोति पश्चाद्विवेकबलेनात्मनिन्दां करोति तदानन्तसंसारो न भवति यदि पुनस्तत्रैव मिथ्याभिमानेन ख्यातिपूजालाभार्थ दुराग्रहं करोति तदा भवति । अथवा यदि कालान्तरेऽप्यात्मनिन्दा करोति तथापि न भवतीति ।।२६६।। उत्थानिका-आगे कहते हैं कि जो स्वयं गुणहीन होता हुआ दूसरे अपने से जो गुणों में अधिक हैं उनसे अपनी बिनय चाहता है उसके गुणों का नाश हो जाता है जो दु (ज० वृ०)

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