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[ पवयणसारो
मागम का अभ्यास करते हुए भीतर में स्वसंवेदन जान से पूर्ण हैं ऐसे साधुओं को दूसरे साधु आते देख उठ खड़े होते हैं, परम चैतन्य ज्योतिमय परमात्म पदार्थ के ज्ञान के लिये उनको परम भक्ति से सेवा करते हैं तथा उनको नमस्कार करते हैं। यदि कोई चारित्र व तप में अपने से अधिक न हो तो भी सम्यग्ज्ञान में बड़ा समझकर श्रत को विनय के लिये उनका आदर करते हैं। यहां यह तात्पर्य है कि जो बहुत शास्त्रों के ज्ञाता हैं, परन्तु चारित्र में अधिक नहीं हैं तो भी परमागम के अभ्यास के लिये उनको यथायोग्य नमस्कार करना योग्य है । दूसरा कारण यह है कि वे सम्यग्दर्शन तथा सम्यग्ज्ञान में पहले से ही दृढ़ हैं। जिसके सम्यक्त्व व ज्ञान में दृढ़ता नहीं है वह साधु वंदना योग्य नहीं है। आगम में जो अल्प चारित्र वालों को वन्दना आदि का निषेध किया है, वह इसीलिये की मर्यादा का उल्लंघन न हो ॥२६३।।
अथ कीदृशः श्रमणाभासो भवतीत्याख्याति
ण हवदि समणो त्ति' मदो संजमतवसुत्तसंपजुत्तो वि । जदि सद्दावि ग अत्थे आदापधाणे जिणक्खादे ॥२६४॥
न भवति श्रमण इति मतः संयमतपःसूत्रसंप्रयुक्तोऽपि ।
यदि श्रद्धत्ते नार्थानात्मप्रधानान् जिनाख्यातान् ॥२६४|| आगमज्ञोऽपि संयतोऽपि तपःस्थोऽपि जिनोक्तिमनन्तार्थनिर्भरं विश्व स्वेनात्मना ज्ञेयत्वेन निष्पीतत्वादात्मप्रधानमश्रद्दधानः श्रमणाभासो भवति ॥२६४॥
भूमिका—अब, श्रमणाभास कैसा (जीव) होता है सो कहते हैं
अन्वयार्थ---[संयमतप:सूत्रसंप्रयुक्तः अपि] सूत्र, संयम और तप से संयुक्त होने पर भी [यदि] यदि (वह जीव) [जिनाख्यातान्] जिनोक्त [आत्मप्रधानान] आत्मप्रधान [अर्थान] पदार्थों का न श्रद्धत्ते] श्रद्धान नहीं करता तो वह [श्रमणः न भवति | श्रमण नहीं है, [इति मतः] ऐसा [आगम में ] कहा है।
टीका-आगम का ज्ञाता होने पर भी संयत होने पर मो तप में स्थित होने पर भी, जिनोक्त अनन्त पदार्थों से भरे हुये विश्व को अपने आत्मा द्वारा ज्ञेयरूप से जानता है इस कारण उस विश्व में आत्म प्रधान है, जो जीव उसका श्रद्धान नहीं करता है वह श्रमणाभास है ॥२६॥
१. इदि (ज००)।