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पवयणसारो ।
तात्पर्यवृत्ति अथ श्रमणाभासः कीदृशो भवतीति पृष्ट प्रत्युत्तरं ददाति;--
ण हदि समणो स श्रमणो न भवति इदि मदो इति मत: सम्मत: । क्व ? आगमे । कथंभूतोऽपि? संजमतवसुत्तसंप्पजुत्तोवि संयमतपः श्रुतः संप्रयुक्तोऽपि सहितोऽपि । यदि किम् ? अदि सद्दहवि ण यदि चेन्मुडवयादिपञ्चविंशतिसम्यक्त्वमलरहितः सन् न श्रद्धत्ते न रोचते न मन्यते । कान् ? अत्ये पदार्थान् । कथं भूतान् ? आदपधाणे निर्दोषिपरमात्मप्रभृतीन् । पुनरपि कथं भूतान् ? जिणक्खादे वीतरागसर्वज्ञेनाख्यातान् दिव्यध्वनिना प्रणीतान् गणधरदेवप्रेन्यविरचितानित्यर्थः ।। २६४॥
उत्थानिका—आ अभणाभास कैसा होता है इस न के उत्तर में आचार्य कहते हैं
__ अन्वय सहित विशेषार्थ—(संजमतवसुत्तसंप्पजुसोवि) संयम, तप तथा शास्त्रज्ञान सहित होने पर भी (जदि) जो कोई (जिणक्लादे) जिनेन्द्र द्वारा कहे हुए (आदपधाणे अत्थे) आत्मा को मुख्य करके पदार्थों को (ण सहदि) नहीं श्रद्धान करता है (समणोत्ति ण हववि मनो) यह साधु नहीं हो सकता है, ऐसा माना गया है। यदि साधु, संयम भी पालता हो, तप भी करता हो, शास्त्रज्ञान सहित भी हो परन्तु तीन मूढ़ता आदि सम्यक्त्व के पश्चीस दोषों से रहित होकर वीतराग सर्वज्ञ द्वारा प्रकाशित तथा दिव्य-ध्वनि अनुसार गणधर द्वारा ग्रंथों में गुम्फित निर्दोष परमात्मा आदि पदार्थ-समूह का श्रद्धान नहीं करता, रुचि नहीं रखता, मान्यता नहीं देता, वह श्रमण नहीं है अर्थात् मिथ्यादृष्टि है ॥२६४॥
अथ श्रामण्येन सममननुमन्यमानस्य विनाशं दर्शयति
अववददि सासणत्यं समणं विट्ठा पदोसदो जो हि । किरियासु गाणुमण्णदि हदि हि सो गठ्ठचारित्तो ॥२६॥
अपवदति शासनस्थं श्रमणं दृष्ट्वा प्रद्वेषतो यो हि।
क्रियासु नानुमन्यते भवति हि स नष्टचारित्रः ।।२६५।। श्रमणं शासनस्यमपि प्रद्वेषावपवक्तः क्रियास्वननुमन्यमानस्य च प्रदेषकषायितस्वाच्चारित्रं नश्यति ॥२६॥
भूमिका-मब, जो श्रामण्य से समान हैं उनका अनुमोदन (आदर) न करने वाले का विनाश बतलाते है
अन्वयार्थ—-[यः हि] जो [शासनस्थं श्रमणं] शासनस्थ (जिनदेव के शासन में स्थित) श्रमण को [दृष्ट्वा ] देखकर [प्रद्वेषतः] द्वेष से [अपवदति] उसका अपवाद करता है, और [क्रियासु न अनुमन्यते] (सत्कारादि) क्रियाओं के करने में अनुमत (प्रसन्न) नहीं है [सः नष्टचारित्रः हिं भवति ] उसका चारित्र नष्ट हो जाता है।