Book Title: Pravachansara
Author(s): Kundkundacharya, Shreyans Jain
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 637
________________ पवयणसारो ] [ ६०६ अशुभोपयोगरहिताः शुद्धोपयुक्ता: शुभोपयुक्ता वा । निस्तारपन्ति लोकं नेष प्रगलं लभते भक्त '१६०॥ यथोक्तलक्षणा एवं श्रमणा मोहद्वेषाप्रशस्त रागोच्छेदादशमोपयोगवियुक्ताः सन्तः सकलकषायोदयविच्छेदात् कदाचित् शुद्धोपयुक्ताः प्रशस्तरागविपाकात्कदाचिन्छुभोपयुक्ताः स्वयं मोक्षायतनत्वेन लोकं निस्तारयन्ति तद्भक्तिभावप्रवृत्तप्रशस्तमावा भवन्ति परे च पुण्यभाजः ॥२६॥ भूमिका-अब, अविपरीत फल का कारण, ऐसा जो 'अविपरीत कारण' है उसे विशेष समझाते हैं __अन्वयार्थ- [अशुभोपयोगरहिताः ] जो अशुभोपयोगरहित वर्तते हुये [शुद्धोपयुक्ताः] शुद्धोपयुक्त [वा] अथवा [शुभोपयुक्ताः] शुभोपयुक्त होते हैं, वे (श्रमण) [लोकं निस्तारयन्ति] लोगों को तार देते हैं, (और) [तेषु भक्तः] उनके प्रति भक्तिवान् जीव [प्रशस्तं] प्रशस्त (पुण्य) को [लभते] प्राप्त करता है । टीका-यथोक्त लक्षण वाले श्रमण हो-जो कि मोह, द्वेष और अप्रशस्त राग के उच्छेद से अशुभोपयोगरहित वर्तते हुये; समस्त कषायोदय के विच्छेद से कदाचित् शुद्धोपयुक्त (शुद्धोपयोग में युक्त) और प्रशस्त राग के विपाक से कदाचित् शुभोपयुक्त होते हैं वेस्वयं मोक्षायतन होने से लोक को तार देते हैं, और उनके प्रति भक्ति भाव से जिनके प्रशस्त भाव प्रवर्तता है ऐसे पर जीव पुण्य के भागी होते हैं ॥२६०॥ तात्पर्यवृत्ति अथ तेषामेव पात्रभूततपोधनानां प्रकारान्तरेण लक्षणमुपलक्षयति-- सुद्ध वजुता सुहोवजुत्ता या शुद्धोपयोगशुभोपयोगपरिणतपुरुषाः पात्रं भवन्तीति । तद्यथानिर्विकल्पसमाधिबलेन असुभोवयोगरहिवा शुभाशुभोपयोगद्वयरहितकाले कदाचिद्वीतरागचारित्रलक्षणशुद्धोपयोगयुक्ताः कदाचित्पुनर्मोहद्वेषाशुभरागरहितकाले सरागचारित्रलक्षणशुभोपयोगयुक्ताः सन्तो लोग भव्यलोक णित्थारयंति निस्तारयन्ति तेसु भत्तो तेषु च भव्यो भक्तो भन्यवरपुण्डरीकः पसत्यं प्रशस्तफलभूतं स्वर्ग लहदि लभते परंपरया मोक्षं चेति भावार्थः ।।२६०॥ एवं पात्रापात्रपरीक्षाकथनमुख्यतया गाथापञ्चकेन तृतीयस्थलं गतम् । इत ऊर्ध्व आचारकथितक्रमेण पूर्व कथितमपि पुनरपि दृढ़ीकरणार्थ पिशेषेण तपोधनसमाचारं कथयति। उत्थानिका-आगे और भी उत्तम पात्र तपोधनों का लक्षण अन्य प्रकार से कहते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ-(अशुभोषयोगरहिदा) जो अशुभ उपयोग से रहित हैं, (सुद्ध वजुत्ता) शुद्धोपयोग में लीन हैं (वा सुहोबजुत्ता) या कभी शुभोपयोग में वर्तते हैं ये

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