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पवयणसारो 1
[ ६०७ अन्वयार्थ - [ यदि वा ] यदि [ते विषयकषायाः ] वे विषयकषाय [पापम् ] पाप हैं, [ इति ] इस प्रकार [शास्त्रेष ] शास्त्रों में [ प्ररूपिताः ] प्ररूपित किया गया है, तो [ तत्प्रतिवद्धोः ] उन विषय कषायों में लीन [ ते पुरुषाः ] वे पुरुष [ निस्तारकाः ] पार लगाने वाले [ कथं भवन्ति ] कैसे हो सकते हैं ?
टीका- - प्रथम तो विषय कषाय पाप हो हैं, विषयकषायवान् पुरुष भी पाप ही हैं, इसलिए विषय कषायवान् पुरुषों के प्रति अनुरक्त जीव भी पाप में अनुरक्त होने से पाप हो हैं, विषय कषायवान् पुरुष अपने भक्त पुरुषों को पुण्य का कारण भी नहीं होते, तब फिर वे संसार से पार उतारने के कारण तो कैसे हो सकते हैं ? नहीं हो सकते, इसलिये उनसे अविपरीत फल सिद्ध नहीं होता ।
तात्पर्य वृत्ति अथ तमेवार्थ प्रकारान्तरेण दृढयति
जबि ते विसयकसाया पावत्ति परुविदा य सत्थेस यदि च ते विषयकषायाः पापमिति प्ररूपिताः शास्त्रेषु हि ते तपडिबद्धा पुरिसा णिश्थारगा होंति कथं ते तत्प्रतिबद्धा विषयकषायप्रतिबद्धाः पुरुषा निस्तारकाः संसारोत्तारका दातृणां ? न कथमपीति । एतदुक्त भवति - विषयकषायास्तावत्पापस्वरूपास्तद्वन्तः पुरुषा अपि पापा एव ते च स्वकीयभक्तानां दातृणां पुण्यविनाशका एवेति ॥ २५८ ॥ उत्थानिका --- आगे इस ही अर्थ को दूसरे प्रकार से दृढ़ करते हैं
अन्वय सहित विशेषार्थ - ( जदि ) यदि ( ते विसयकसाया ) वे इन्द्रियों के विषय क्रोध कषाय आदि (सत्थे तु ) शास्त्रों में ( पावत्ति ) पापों का उपदेश देने वाले (परुविया) कहे गये हैं (तपडिबद्धा) उन विषय कषायों में सम्बन्ध रखने वाले (ते पुरिसा) वे अल्प ज्ञानी पुरुष ( णित्थारगा) अपने भक्तों को संसार से तारने वाले ( किह होंति) कैसे हो सकते हैं ? नहीं हो सकते । विषय और कषाय पाप रूप हैं इसलिये उनके धारणे वाले पुरुष भो पाप रूप ही हैं। तब वे अपने भक्तों के व दातारों के वास्तव में पुण्य के नाश करने वाले हैं ॥२५८॥
अथाविपरीत फलकारणं कारणमविपरीतं दर्शयति-
उवरदपावो पुरिसो समभावो धम्मिसु सव्वेसु ।
गुणसमिदिदोवसेवी हवदि स भागी सुमग्गस्स ॥ २५६ ॥
उपरतपापः पुरुषः समभावो धार्मिकेषु सर्वेषु ।
गुणसमितितोपत्री भवति स भागी सुमार्गस्य ॥ २४३॥
उपरतपापत्येन सर्वधमिमध्यस्थत्वेन गुणग्रामोपसेवित्वेन च सम्यग्दर्शनज्ञानचारि