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पवयणसारो ]
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मूल वस्तु अर्थात् देव गुरु शास्त्र धर्मादि क्वाथों में (वणिमज्झमण दाणरदो) तथा व्रत, नियम, पठन-पाठन, ध्यान-दान में रत पुरुष ( अपुणमाचं ) अपुनर्भव अर्थात् मोक्ष को (ण लहदि ) नहीं प्राप्त कर सकता है, किन्तु ( सावप्यगं भावं) सातामयी अवस्था को अर्थात् सातावेदनीय के उदय से देव या मनुष्य पर्याय को (लहदि ) प्राप्त करता है । जो कोई निश्चय तथा व्यवहार मोक्षमार्ग को नहीं जानते हैं, केवल पुण्यकर्म को ही मुक्ति का कारण कहते हैं उनको यहां छपस्थ या अल्पज्ञानी कहना चाहिये, न कि गणधरदेव आदि ऋषिगण । जो शुद्धात्मा के यथार्थ उपदेश को नहीं दे सकते इन अल्पज्ञानियों अर्थात् मिथ्याज्ञानियों के द्वारा दीक्षितों को छश्वस्थ विहित वस्तु कहते हैं। ऐसे अयथार्थ कल्पित पात्रों के सम्बन्ध से जो व्रत, नियम, पठन-पाठन, दान आदि कार्य, जो पुरुष करता है वह कार्य शुद्धात्मा के अनुकूल नहीं होता है इसीलिये मोक्ष का कारण नहीं होता है, उससे वह सुदेव या मनुष्यपना प्राप्त करता है ।। २५६।।
अय कारणवैपरीत्यफलवैपरीत्ये एव व्याख्याति - अविविदपरमत्थे म विसयकसायाधिगेसु पुरिसेसु ।
जुट्ठ कदं व दत्तं फलदि कुदेवेसु मणुवेसु ।। २५७ || अविदितपरमार्थेषु च विषयकषायाधिकेषु पुरुषेषु ।
जुष्टं कृतं वा दत्तं फलति कुदेवेषु मनुजेषु ॥ २५७ ॥
यानि हि छद्यस्थव्यवस्थापितवस्तुनि कारणवैपरीत्यं ते खलु शुद्धात्मपरिज्ञानशून्यतयानवाप्त शुद्धात्मवृत्तितया चाविदितपरमार्था विषयकषायाधिकाः पुरुषाः तेषु शुभोपयोगात्मकान जुष्टोपकृतवत्तानां या केवलपुण्यापसवप्राप्तिः फलपरीत्यं तत्कुदेवमनुजत्वम् ॥ २५७ ॥ भूमिका – अब, ( इस गाथा में भी) कारण विपरीतता और फल विपरीतता हो बतलाते हैं
अन्वयार्थ – [ अविदितपरमार्थेषु ] जिन्होंने परमार्थ को नहीं जाना है, [च] और [विषयकषायाधिकेषु ] जिनके विषय कपाय की प्रबलता है, [पुरुषेषु ] ऐसे पुरुषों के प्रति [ जुष्टं कृतं वा दत्तं | सेवा, उपकार या दान [ कुदेवेषु मनुजेषु ] कुदेवरूप में और कुमनुप्य रूप में [ फलति ] फलता है ।
टीका--- जो छद्मस्थ कथित वस्तुयें हैं वे विपरीत कारण हैं। वे छद्मस्थ वास्तव में (१) शुद्धात्मज्ञान से शून्यता के कारण 'परमार्थ को नहीं जानने वाले और ( २ ) शुद्धात्मपरिणति को प्राप्त न करने से विषयकषाय की प्रबलता वाले पुरुष हैं उनके प्रति