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पवयणसारो । रङ्गनिर्ग्रन्थनिविकाररूपम् । काभिः कृत्वा वर्तताम् ? अन्भुट्ठाणप्पधाणकिरियाहि अभ्यागतयोग्याचारविहिताभिरभ्युत्थानादिक्रियाभिः तदो गुणावो ततो दिनत्रयानन्तरं गुणाद्गुणविशेषात् विसेसिदब्दो त्ति तेन आचार्येण स तपोधनो रत्नत्रयभावनावृद्धिकारणक्रियाभिविशेषितव्यः ? ति उपदेसो इत्युपदेशः सर्वज्ञगणधरदेवादीनामिति ॥२६१॥
उत्थानिका--आगे दर्शाते हैं कि जो कोई साधु संघ में आवें उनका तीन दिन तक सामान्य सम्मान करना चाहिये । फिर विशेष करना चाहिये
अन्वय सहित विशेषार्थ-(पगदं वत्थु) यथार्थ पात्र को (विट्ठा) देखकर (अब्भुठाणप्पधाणकिरियाहि) उठ कर खड़ा होना आदि क्रियाओं से (ब) वर्तन करना योग्य है, (तवो) पश्चात् (गुणदो) रत्नत्रयमय गुणों के कारण से (विसेसिबब्बो) उसके साथ विशेष वर्ताव करना चाहिये (त्ति उवदेसो) ऐसा उपदेश है। आचार्य महाराज किसी ऐसे साधु को-जो भीतर बोतराग शुद्धात्मा की भावना का प्रगट करने वाला बाहरी निम्रन्थ के निविकार रूप का धारी है-आते देखकर उस अभ्यागत के योग्य आचार के अनुकूल उठ खड़ा होना आदि क्रियाओं से उसके साथ वर्तन करें। फिर तीन दिनों के पीछे उसमें गुणों की विशेषता के कारण से उसके साथ रत्नत्रय की भावना की वृद्धि करने वाली क्रियाओं के द्वारा विशेष वर्ताव करें। ऐसा सर्वज्ञ भगवान व गणधरदेवादि का उपदेश है ॥२६१॥ विशेष कथयति
अब्भुट्ठाणं गहणं उवासणं पोसणं च सक्कारं। अंजलिकरणं पणमं भणिदमिह गुणाधिगाणं हि ॥२६२॥
अभ्युत्थानं ग्रहणमुपासनं पोषणं च सत्कारः।।
अञ्जलिकरणं प्रणामो भणितमिह गुणाधिकानां हि ॥२६२॥ श्रमणानां स्वतोऽधिकगुणानामभ्युत्थानग्रहणोपासनपोषणसत्काराञ्जलिकरणप्रणामप्रवृत्तयो न प्रतिषिद्धाः ॥२६२॥
भूमिका-विशेष कथन करते हैं--
अन्वयार्थ-[गुणाधिकानां हि] गुण में अधिक (श्रमणों) के प्रति [अभ्युत्यानं सम्मानार्थ खड़े होना, [ग्रहणं] आदर से स्वीकार [उपासनं] सेवा [पोषणं] पोषण उनके अशन, शयनादि की चिन्ता [सत्कार:] गुणों की प्रशंसा [अञ्जलिकरणं] विनयपूर्वक हाथ जोड़ना | च] और [प्रणामः] प्रणाम करना [इह] यहां [भणितम्] कहा है।
टीका-श्रमणों को अपने से अधिक गुणी मुनि प्रति अभ्युत्थान, ग्रहण, उपासन, पोषण, सत्कार, अंजलिकरण और प्रमाणरूप प्रवृतियां निषिद्ध नहीं हैं ॥२६२॥