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[ पवयणसारो (लोगं गत्थारयंति) जगत् को तारने वाले हैं (तेसु भत्तो) उनमें भक्ति करने वाला (पसत्थं) उत्तम पुण्य को (लहदि) प्राप्त करता है। जो मुनि शुद्धोपयोग और शभोपयोग के धारी हैं, वे ही उत्तम पात्र हैं। निर्विकल्पसमाधि के बल से जब शुभ और अशुभ दोनों उपयोगों से रहित हो जाते हैं तब वीतरागचारित्ररूप शुद्धोपयोग के धारी होते हैं । कदाचित् मोह, द्वेष व अशुभ राग से शून्य रहकर सरागचारित्रमय शुभोपयोग में वर्तन करते हुए भव्य लोगों को तारते हैं। ऐसे उत्तम पात्र साधुओं में जो भव्य भक्तिमान है वह भव्यों में मुख्य जीव उत्तम पुण्य बांधकर स्वर्ग पाता है तथा परम्पराय मोक्ष का लाभ करता है ॥२६॥
इस तरह पात्र-अपात्र को परीक्षा को कहने की मुख्यता से पांच गाथाओं के द्वारा तीसरा स्थल पूर्ण हुआ इसके आगे आचार के कथन के ही क्रम से पहले कहे हुए कथन को और भी दृढ़ करने के लिये विशेष करके साधु का व्यवहार कहते हैं।
अथाविपरीतफलकारणाविपरीतकारणसमुपासनप्रवृत्ति सामान्यविशेषतो विधेयतया सूत्रद्वैतेनोपदर्शयति
विद्या पगदं वत्थु अन्भुट्ठाणप्पधाणकिरियाहि । वट्टदु तदो गुणादो विसेसिदब्यो ति उवदेसो ॥२६१॥
दृष्ट्वा प्रकृतं वस्त्वभ्युत्थानप्रधानक्रियाभिः ।
बर्ततां ततो गुणाद्विशेपितव्य इति उपदेशः ।।२६१।। श्रमणानामात्मविशुद्धिहेतौ प्रकृते वस्तुनि तदनुकूल क्रियाप्रवृत्या गुणातिशयाधानमप्रतिषिद्धम् ॥२६१॥
भूमिका-अब, अविपरीत फल का कारण जो ‘अविपरीत कारण' उसको उपासना रूप प्रवृत्ति सामान्यतया और विशेषतया करने योग्य है, यह दो सूत्रों द्वारा बतलाते हैं
अन्वयार्थ-[प्रकृतं वस्तु] यथाजात मुनि को [दृष्ट्वा ] देखकर (प्रथम तो) [अभ्युत्थानप्रधानक्रियाभिः] सम्मानार्थ खड़े होना आदि क्रियाओं को [वर्तताम्] करो [ततः] फिर उन क्रियाओं में [गुणात्] गुणानुसार [विशेवितव्यः] विशेषता करनी चाहिये [इति उपदेशः] ऐसा उपदेश है।
टीका-श्रमणों के आत्मविशुद्धि की हेतुभूत यथाात श्रमण के प्रति उनके योग्य क्रिया रूप प्रवृत्ति से गुणातिशयता के आधान करने का निषेध नहीं है ॥२६॥
तात्पर्यवत्ति अथाभ्यागततपोधनस्य दिनत्रयपर्यन्तं सामान्यप्रतिपत्ति तदनन्तरं विशेषप्रतिपत्ति दर्शयति;
वट्ट वर्तताम् । स कः ? अम्रत्य आचार्यः । कि कृत्वा ? विट्ठा दृष्ट्वा । किं ? वत्यु तपोधनभूत पात्रं वस्तु । कि बिशिष्टम् ? पगवं प्रकृतं अभ्यन्तरनिरुपरागशुद्धात्मभावनाज्ञापकावहि