Book Title: Pravachansara
Author(s): Kundkundacharya, Shreyans Jain
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 628
________________ ६०० ] [ पबयणसारो चारित्रलक्षणशुद्धोपयोगिनां वा वैयावृत्त्यं करोति तदा काले तद्वयावृत्यनिमित्त लौकिकजनैः सह सम्भाषणं करोति न शेषकाल इति भावार्थः ।।२५३|| एवं माथापञ्चकेन लौकिकव्याख्यानसम्बन्धिप्रथमस्थलं गतम् । उत्थानिका-आगे उपदेश करते हैं कि साधुओं की वैयावृत्य के वास्ते शुभोपयोगी साधुओं को लौकिक जनों के साथ भाषण करने का निषेध नहीं है___अन्वय सहित विशेषार्थ-(वा) अथवा (गिलाणगुरुबालबुड्डसमणाणं) रोगी मुनि, गुरु अर्थात् स्थूलकायमुनि या पूज्यमुनि, बालकमुनि तथा वृद्धमुनि की (वेज्जावच्चणिमिस) वैय्यावृत्य के लिए (सुहोवजुदा) शुभोपयोगी मुनि को (लोगिगजणसंभासा) शुभोपयोगी लौकिक जनों के साथ भाषण करना (णिदिदा ण) निषिद्ध नहीं है। जब कोई भी शुभोपयोग सहित आचार्य सरागचारित्र रूप शुभोपयोग के धारी साधुओं की अथवा वीतरागचारित्र रूप शुद्धोपयोगधारी साधुओं की वैयावत्य करता है उस समय उस वैयावत्य के प्रयोजन से लौकिकजनों के साथ संभाषण भी करता है । शेष काल में नहीं, यह भाव है ॥२५३॥ इस तरह पांच गाथाओं के द्वारा लौकिक व्यवहार के व्याख्यान के सम्बन्ध में पहला स्थल पूर्ण हुआ। अथैवमुक्तस्य शुभोयोगस्य गौणमुख्यविभागं दर्शयति एसा पसत्थभूदा समणाणं वा पुणो घरत्थाणं । चरिया परेत्ति भणिदा ताएव परं लहदि सोक्खं ॥२५४॥ एषा प्रशस्तभूता श्रमणानां बा पुनर्गृहस्थानाम् । चर्या परेति भणिता तथव परं लभते सौख्यम् ।।२५४।। एवमेष शुद्धात्मानुरागयोगिप्रशस्तचर्यारूप उपवर्णितः शुभोपयोगः तदयं शुद्धात्मप्रकाशिको समस्तविरतिमुपेयुषां कषायफणसभावात्प्रवर्तमानः शुद्धात्मवृत्तिविरुद्धरागसंगतत्वाद्गौणः श्रमणानां, गृहिणां तु समस्तविरतेरभावेन शुद्धात्मप्रकाशनस्याभावात्कषायसद्भावात्प्रवर्तमानोऽपि स्फटिकसंपणार्कतेजस इवैधसां रागसंयोगेन शुद्धात्मनोऽनुभवात्क्रमतः परमनिर्वाणसौख्यकारणस्वाच्च मुख्यः ॥२५४॥ भूमिका-अब, इस प्रकार से कहे गये शुभोपयोग का गौण-मुख्य विभाग बतलाते हैं अर्थात् यह बतलाते हैं कि किसके शुभोपयोग गौण होता है और किसके मुख्य होता है ___ अन्वयार्थ-[एषा] यह [प्रशस्तभूता] प्रशस्तभूत [चर्या] चर्या [श्रमणानां] श्रमणों के (गौण) होती है [वा गृहस्थानां पुनः] और गृहस्थों के तो [परा) मुख्य होती है, [इति भणिता] (शास्त्रों में) ऐसा कहा गया है, [तया एव] उसी से [परसौख्यं लभते ] गृहस्थ परम सौख्य को प्राप्त होता है ।

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