Book Title: Pravachansara
Author(s): Kundkundacharya, Shreyans Jain
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 625
________________ पवयणसारी ] कारचर्यायुक्तानाम्] साकार-अनाकार चर्यायुक्त [जनानां] जनों का [निरपेक्षं] निरपेक्षतया [अनुकम्पया] अनुकम्पा से [उपकारं करोतु] (शुभोपयोग से) उपकार करो। टीका-जो अनुकम्पापूर्वक परोपकार स्वरूप प्रवृत्ति उसके करने से यद्यपि अल्प लेप तो होता है, तो भी अनेकान्त के साथ मंत्री से जिनका चित्त पवित्र हुआ है ऐसे शुद्ध जैनों के प्रति जो कि शुद्धात्मज्ञान-दर्शन में प्रवर्तमान चर्या के कारण सागार अनागार चर्या वाले हैं उनके प्रति-शुखात्मा को उपलब्धि के अतिरिक्त अन्य सबको अपेक्षा किये बिना ही, उस प्रवृत्ति के करने का निषेध नहीं है, किन्तु अल्प लेप बाली होने से सबके प्रति सभी प्रकार से वह प्रवृत्ति अनिषिद्ध ही ऐसा भी नहीं है, क्योंकि इसमें (अर्थात् यदि सबके प्रति सभी प्रकार से की जाय तो) उसी प्रकार की प्रवृत्ति से पर के और निज के शुद्धात्मपरिणति की रक्षा नहीं हो सकती ॥२५१।। सात्पर्यवृत्ति अथ यद्यप्यल्पलेपो भवति परोपकारे तथापि शुभोपयोगिभिर्धमोपकारः कर्तव्य इत्युपदिशति ; कुब्वदु करोतु । स कः कर्ता ? शुभोपयोगी पुरुषः । कं करोतु ? अणुफपओबयार अनुकम्पासहितोपकारं दयासहितं धर्मवात्सल्यम् । यदि किम् ? लेवो जदि वियप्पो “सावद्यलेशो बहुपुण्यराशौ" इति दृष्टान्तेन यद्यप्यल्पलेपः स्तोकसावधं भवति । केषां करोतु ? जोण्हाणं निश्चयव्यवहारमोक्षमार्गपरिणतजैनानाम् । कथम् ? हिरवेक्खं निरपेक्षं शुद्धात्मभावनाविनाशकख्यातिपूजालाभवाञ्छारहितं यथा भवति । कथंभूतानां जैनानाम् ? सागारणगारचरियजुत्ताणं सागारानागारचर्यायुक्तानां श्रावकतपोधनाचरणसहितानामित्यर्थः ॥२५१॥ उस्थानिका—यद्यपि परोपकार करने में कुछ अल्प बन्ध होता है, तथापि शुभोपयोगी साधुओं को धर्म सम्बन्धी उपकार करना चाहिये, ऐसा उपदेश करते हैं । ___ अन्वय सहित विशेषार्थ (जदिवियप्पो लेवो) यद्यपि अल्प बन्ध होता है तथापि शुभोपयोगी मुनि (सागारणमारचरियजुत्ताणं) श्रावक तथा मुनि के आचरण से युक्त (जोण्हाणं) जैनधर्म धारियों का (हिरवेक्वं) बिना किसी इच्छा के (अणुकंपओवयारं) क्या सहित उपकार (कुन्वदि) करे । यद्यपि अल्प कर्म बन्ध होता है तथापि शभोपयोगी पुरुष निश्चय तथा व्यवहार मोक्षमार्ग पर चलने वाले श्रावकों को तथा मुनियों को सेवा व उनके साथ दयापूर्वक धर्म, प्रेम या उपकार, शुद्धात्मा की भावना को विनाश करने वाले प्रसिद्धि, पूजा, लाभ की इच्छा आदि भावों से रहित होकर करे ॥२५१॥

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