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पवयणसारो ]
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वे राजऋषि हैं, जो बुद्धि और औषध ऋद्धि के धारी हैं वे ब्रह्मऋषि हैं, जो आकाशगमन ऋद्धि के धारी हैं देव ऋषि हैं, परमऋषि के वलज्ञानी हैं। ये चारों ही श्रमण संघ इसीलिये कहलाता है कि सुख दुःख आदि के सम्बन्ध में इन सभी के समताभाव रहता है । अथवा श्रमण धर्म के अनुकूल चलने वाले श्रावक, श्राविका, मुनि, आर्यिका ऐसे भी चार प्रकार संघ है । इन चार तरह के संध का उपकार करना इस तरह योग्य है जिसमें उपकारकर्ता साधु आत्मीक भावना स्वरूप अपने ही शुद्धचंतन्यमय निश्चयप्राण की रक्षा करता हुआ बाह्य में छः काय के प्राणियों को विराधना न करता हुआ बर्तन कर सके । ऐसा ही तपोधन धर्मानुराग रूप चारित्र के पालने वालों में श्रेष्ठ होता है ॥ २४६ ॥ अथ प्रवृत्तेः संयमविरोधित्वं प्रतिषेधयति
जदि कुणदि कायखेदं वेज्जा वच्चत्थमुज्जदो समणो ।
ण हवदि हवदि अगारी धम्मो सो सावयाणं से ॥ २५० ॥ यदि करोति कायखेदं वैयावृत्त्यर्थमुद्यतः श्रमणः ।
न भवति भवत्यगारी धर्मः स श्रावकाणां स्यात् ।। २५०।।
यो हि परेषां शुद्धात्मवृत्तित्राणाभिप्रायेण वैयावृत्यप्रवृत्या स्वस्य संयमं विराधयति स गृहस्थधर्मातुप्रवेशात् श्रामण्यात् प्रच्यवते । अतो या काचन प्रवृत्तिःसा सर्वथा संयमाविरोधेनैव विधातव्या । प्रवृत्तावपि संयमस्यैव साध्यत्वात् ॥२५०||
भूमिका – अब इस प्रवृत्ति के संयम के विरोधी होने का निषेध करते हैं (अर्थात् शुभोपयोगी श्रमण के संयम के साथ विरोध वाली प्रवृत्ति नहीं होनी चाहिये, यह कहते हैं)अम्वयार्थ - [ यदि ] यदि ( श्रणण ) ( वैयावृत्त्यर्थम् उद्यतः] वैयावृत्ति के लिये उद्यमी वर्तता हुआ [ कायखेदं ] जीवों को पीड़ित [करोति ] करता है तो वह [ श्रमणः न भवति ] श्रमण नहीं है, [ अगारी भवति ] गृहस्थ है, ( क्योंकि ) [स] वह [ श्रावकाणां धर्मः स्यात् ] श्रावकों का धर्म है ।
टीका--दूसरे के शुद्धात्मपरिणति की रक्षा के अभिप्राय से जो मुनि वैयावृत्य की प्रवृत्ति करता हुआ अपने संयम की विराधना करता है, उसका गृहस्थधर्म में प्रवेश होने से श्रामण्य से च्युत होता है । इसलिये जो भी प्रवृत्ति हो उसका संयम के साथ सर्वथा विरोध न आये ऐसी प्रवृत्ति होनी चाहिये, क्योंकि प्रवृत्ति में संयम ही साध्य है ॥ २५० ॥
तात्पयंवृत्ति
अथ वैयावृत्त्यकालेपि स्वकीय संयम विराधना कर्त्तव्येत्युपदिशति
जदि कुर्णादि कायखेवं वेज्जावच्चस्थमुज्जदो यदि चेत् करोति कायखेदं षट्कायविराधना |