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[ पवयणसारो
तात्पर्यवृत्ति
अथ निश्चयहिंसारूपोन्त रंगछेदः सर्वथा प्रतिषेध्य इत्युपदिशति
अयदाचारो निर्मलात्मानुभूतिभावना लक्षणप्रयत्नरहितत्वेन अयताचारः प्रयत्नरहितः । स कः ? समणो श्रमणस्तपोधनः छत्सु वि कायेसु वधकरोति मदो षट्स्वपि कायेषु वधकरो हिंसाकर इति मतः सम्मतः कथितः । चरदि आचरति वर्त्तते । कथं यथा भवति ? जदं यतं यत्नपरं अदि यदि चेत् णिच्वं नित्यं सर्वकालं तदा कमलं व जले णिरुवलेवो कमलमिव जले निरुपलेप इति । एतावता किमुक्त भवति - शुद्धात्मसंवित्तिलक्षणशुद्धोपयोगपति षः कुले बहिरंगद्रव्यहिंसामात्रमस्ति तथापि निश्चयहिंसा नास्ति । ततः कारणाच्छुद्धपरमात्मभावनाबलेन निश्चयहिंसंव सर्वतात्पर्येण परिहर्तव्येति ॥२१८॥
उत्थानिका- आगे आचार्य निश्चयहिंसारूप जो अन्तरंगछेद है उसका सर्वथा निषेध करते हैं
अन्वय सहित विशेषार्थ - ( अयदाचारो समणो ) निर्मल आत्मा के अनुभव करने की भावना रूप चेष्टा के बिना साधु (छवि कायेसु) पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति तथा
स इन छहों ही कायों की ( वधकरोत्ति मदी) हिंसा करने वाला माना गया है। (जदि) यदि ( चिं) सदा (जदं) यत्न पूर्वक (चरवि) आचरण करता है तो (जले कमल व णिरुवलेयो ) जल में कमल के समान कर्म-बन्ध के लेप से रहित होता है । यदि गाथा में ( बंधगोति) पाठ लेवें तो यह अर्थ होगा कि अयत्न-शोल कर्मबन्ध करने वाला है । यहाँ यह भाव बताया गया है कि जो साधु शुद्धात्मा के अनुभव रूप शुद्धोपयोग में परिणमन कर रहा है वह पृथ्वी आदि छह कायरूप जन्तुओं से भरे हुए इस लोक में विचरता हुआ भी यद्यपि बाहर में कुछ द्रव्यहिंसा है तो भी उसके निश्चर्याहंसा नहीं है। इस कारण सब तरह से प्रयत्न करके शुद्ध परमात्मा की भावना के बल से निश्चयहंसा ही छोड़ने योग्य है ॥२१८॥
अर्थकान्तिकान्तरं गछ दत्यादुपधिस्तद्वत्प्रतिषेध्य इत्युपदिशति-
हवदि व ण हवदि बंधो मदम्हि जीवेऽध'कायचेट्ठम्हि । बंधो धुवमुबधोदो इदि समणा छड्डिया सव्वं ॥ २१६ ॥ भवति वा न भवति बन्धो मृते जीवेऽथ कायचेष्टायाम् ।
बन्धो ध्रुवमुपधेरिति श्रमणास्त्यक्तवन्तः सर्वम् ॥१२१६॥ यथा हि कायव्यापारपूर्वकस्य परप्राणव्यपरोपस्य । शुद्धोपयोगसद्भावासद्भावाध्यामनेकान्तिकत्वेन छत्वमनैकान्तिकमिष्टं, न खलु तथोपधेः, तस्य सर्वथा तवविनाभा
१. अथ (ज० बृ० ) ।