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पवयणसारो ।
[ ५८३ लक्षण श्रमणपना है या दूसरा नाम मोक्षमार्ग है, ऐसा जानना चाहिये। इसी मोक्षमार्ग का जब भेदरूप पर्याय की प्रधानता मे अर्थात् प्रयवहारनय मे निर्णय करते हैं तब यह कहते हैं कि सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्ररूप मोक्षमार्ग है । जब अभेवपमे से द्रव्य की मुख्यता से या निश्चयनय से निर्णय करते हैं तब कहते हैं कि एकाग्रता मोक्षमार्ग है । सब हो पदार्थ इस जगत में भेद और अभेद स्वरूप हैं। इसी तरह मोक्षमार्ग भी निश्चय-व्यवहार रूप से दो प्रकार है, इन दोनों का एक साथ निर्णय प्रमाण ज्ञान से होता है, यह भाव है ॥२४॥
_इस तरह निश्चय और व्यवहार संयम के कहने की मुख्यता से तीसरे स्थल में पार गाथाएं पूर्ण हुई।
__ अथानकाग्रयस्य मोक्षमार्गत्वं विघटपतिमुज्झदि वा रज्जवि वा दुस्सदि वा दब्वमण्णमासेज्ज । जदि समणो अण्णाणी बज्झवि कम्मेहि विविहेहिं ॥२४३॥
मुह्यति बा रज्यति वा द्वेष्टि वा द्रव्यमन्यदासाद्य ।
यदि श्रमणोजानी बध्यते कर्मभिर्विविधैः ॥२४३।। यो हि न खलु ज्ञानात्मानमात्मानमेकमग्नं भावति सोऽवश्य ज्ञेयभूतं द्रव्यमन्यदासीवति । तदासाद्य च ज्ञानात्मात्मज्ञानाभ्रष्ट स्वयमज्ञानी भूतो मुह्यति वा रज्यति वा द्वेष्टि या तथाभूतश्च बध्यते एव न तु विमुच्यते अत अनेकानयस्य न मोक्षमार्गत्वं सिद्धयेत् ॥२४३॥
भूमिका-अब यह दिखाते हैं कि अनेकाग्रता के मोक्षमार्गव घटित नहीं होता (अर्थात् अनेकाग्रता मोक्षमार्ग नहीं है)
___ अन्वयार्थ---[यदि] यदि [श्रमणः] श्रमण, [अन्यत् द्रव्यम् आसाद्य] अन्यद्रव्य का आश्रय करके [अज्ञानी] अज्ञानी होता हुआ, [मुह्यति वा] मोह करता है, [रज्यति वा] राग करता है, [द्वेष्टि वा] अथवा द्वेष करता है, तो वह [विविधः कर्मभिः] विविध कर्मों से [बध्यते] बंधता है।
टीका-जो वास्तव में ज्ञानात्मक आत्मारूप एक अग्न (विषय) को नहीं भाता (वीतरागनिविकल्पसमाधि में लोन नहीं होता) वह अवश्य ज्ञेयभूत अन्य द्रव्य का आश्रय करता है, और उसका आश्रय करके, ज्ञानात्मा उसी आत्मज्ञान से भ्रष्ट (वीतरागनिर्विकल्पसमाधि से रहित) स्वयं अज्ञानी होता हुआ मोह करता है, राग करता है, अथवा द्वेष करता है, और ऐसा (मोही रागी अथवा द्वषो) होता हुआ बन्ध को ही प्राप्त होता है इससे अनेकाग्रता को मोक्षमार्गत्व सिद्ध नहीं होता ॥२४३।।