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[ पवयणसारी भावार्थ-परमागम में ऐसा कहा है कि शुद्धोपयोगी श्रमण हैं और शुभोपयोगी भी गौणतया श्रमण हैं जैसे निश्चय से शुद्ध बुद्ध-एक-स्वभाव वाले सिद्ध ही जीव कहलाते हैं और व्यवहार से चतुर्गति परिणत अशुद्ध जीव भी जीव कहे जाते हैं, उसी प्रकार श्रमणपने में शुद्धोपयोगी जीवों की मुख्यता है और शुभोपयोगी जीवों की गौणता है, क्योंकि शुद्धो पयोगी निज शुद्धात्म भावना के बल से समस्त शुभाशभ संकल्प-विकल्पों से रहित होने से निरास्रव ही हैं, और शुभोपयोगियों के मिथ्यात्व विषय कषाय रूप अशुभात्रय का निरोध होने पर भी वे पुण्यात्रवयुक्त हैं ।
तात्पर्यवृत्ति अथ शुभोपयोगिनां सास्रवत्त्वाव्यवहारेण श्रमणत्वं व्यवस्थापयति ;
संति विद्यन्ते। क्य? समयम्हि समये परमागमे । के सन्ति ? समणा श्रमणास्तपोधनाः । किविशिष्टा:? सुद्ध बजुत्ता शुद्धोपयोगयुक्ता: शुद्धोपयोगिन इत्यर्थः सुहोवजुत्ता य न केवलं शुद्धोपयोगयुक्ताः शुभोपयोगयुक्ताश्च । चकारोत्र अन्वयार्थे गौणार्थे ग्राह्यः । तत्र दृष्टान्त: । यथा निश्चयेन शुद्धबद्धकस्वभावाः सिद्धजीवा एव जीवा भण्यन्ते व्यवहारेण चतुर्गतिपरिणता अशुद्धजीवाश्च जीवा इति तथा शुद्धोपयोगिनां मुख्यत्वं शुभोपयोगिनां तु चकारसमुच्चयव्याख्यानेन गौणत्वम् । कस्मादगौणत्वं जातमितिचेत् ? तेसु वि सुद्ध वजुत्ता अणांसवा सासवा सेसा तेष्वपि मध्ये शुद्धोपयोगयुक्ता अनाववाः शेषाः सानवा इति यतः कारणात् । तद्यथा निजशुद्धात्मभावनाबलेन समस्तशुभाशुभसंकल्पविकल्प रहितत्वाच्छुद्धोपयोगिनो निरासवा एवं शेषा शुभोपयोगिनो मिथ्यात्वविषयकषायरूपाशुभास्रवनिरोधेऽपि पुण्यानवसहिता इति भावः ॥२४५।।
उत्थानिका-आगे शुभोपयोगधारियों को आस्रव होता है इससे उनके व्यवहारपने से मुनिपना स्थापित करते हैं--
अन्वय सहित विशेषार्थ-(समयम्हि) परमागम में (समणा) मुनि महाराज (सुद्धवजुत्ता) शुद्धोपयोगी (य सुहोवजुत्ता) और शुभोपयोगी ऐसे दो तरह के (संति) होते हैं। (तेसु वि) इन दो तरह के मुनियों में भी (सुद्धवजुत्ता) शुद्धोपयोगी (अणासवा) आत्रव रहित होते हैं (सेसा) शेष शुभोपयोगी मुनि (सासवा) आस्रव सहित होते हैं। इस गाथा में 'च' शब्द का 'गोण' अर्थ है । जैसे निश्चय से शुद्ध बुद्ध एक स्वभाव रूप सिद्ध जीव ही जीव हैं, परन्तु व्यवहारनय से चारों गतियों में भ्रमण करने वाले अशुद्ध जीव भी जीव है। तसे ही शद्धोपयोग में परिणमन करने वाले साधुओं की मुख्यता है और शुभोपयोग में परिणमन करने वालों की गौणता है, क्योंकि इन दोनों के मध्य में शुद्धोपयोगी साधु आस्रवरहित हैं व शेष शुभोपयोगी आस्रवधान हैं। अपने शुद्धात्मा की भावना के बल से जिनके सर्व शुभ अशुभ संकल्प विकल्पों की शून्यता है उन शुद्धोपयोगी साधुओं के कर्मों।